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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
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शक्ति को क्षीण करने और वसतिवासी परम्परा को अभ्युन्नति के लिये प्रयत्न करते रहे । उन्होंने चैत्यवासी परम्पारा को अशास्त्रीय मान्यताओं पर मर्मान्तकारी प्रहार करने वाले “संघपटक" नामकः ग्रन्थ की रचना की।
जिनवल्लभसूरि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी दादा जिनदत्तसूरि ने भी चैत्यवासी परम्परा की शक्ति को क्षीण करने और वसतिवासी परम्परा की शक्ति को बढ़ाने का जीवन-पर्यन्त अथक प्रयास किया। उन्होंने अनेक क्षत्रीय परिवारों को सामूहिक रूप से जैन धर्मावलम्बी बनाया।
जिनदत्तसरि के स्वर्गस्थ होने पर उनके उत्तराधिकारी जिनपति सूरि ने भी वि० सं० १०८४ में वर्द्धमानसूरि और पं० जिनेश्वरगणि द्वारा चैत्यवासियों के विरुद्ध प्रारंभ किये गये अभियान को उत्तरोत्तर आगे की ओर बढ़ाया। वे जीवन भर चैत्यवासी परम्परा के समूलोन्मूलन के लिये प्रयत्नशील रहे। आपने श्री जिनवल्लभसूरिः द्वारा रचित ४० श्लोकात्मक 'संघपट्टक' नामक ग्रन्थ पर तीन हजार श्लोक प्रमाण टीका की रचना की । आपके द्वारा प्रतिबोधित एवं प्रशिक्षित नेमिचन्द्र भांडा गारिक नामक एक विद्धान्' श्रावक ने भी प्राकृत भाषा में १६० गाथाओं के 'षष्टिश तक' नामक ग्रन्थ की रचना कर चैत्यवासी परम्परा के प्रभाव को समाप्त करने में उल्लेखनीय योगदान दिया। जिनपतिसूरि ने भारत के सुदूरस्थ स्थलों का अप्रतिहत विहार कर चत्यवासी परम्परा को खोखला कर दिया । आपके पास नेमिचन्द्र भण्डारी के पुत्र ने श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की जो आगे जाकर जिनपतिसूरि के उत्तराधिकारी जिनेश्वरसूरि के नाम से विख्यात हुए । जिनेश्वरसूरि ने भी जीवन भर चैत्यवासी परम्परा से संघर्ष करते हुए उसकी जड़ों को झकझोर डाला । आ पने जिनदत्तसूरि द्वारा रचित संदोहदोहावली नामक ग्रन्थ पर टीका की रचना कर चैत्यवासियों के चैत्यों को प्रनायतन ठहराया और अनेक क्षेत्रों में चैत्यवासियों का पराभव किया।
इस प्रकार वि० सं० १०८४ में दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के पराभव के पश्चात् : वैत्यवासी परम्परा का प्रभाव उत्तरोत्तर क्षीण से क्षीणतर होता ही (पृष्ठ १०२ का शेष)
गन्तव्य म्, येन वयमागत्य चिन्तितप्रयोजनं कुर्मा। तत: समागताः जिनवल्लभगरणयः सपरिव राः। तेऽपि तथैव समागता देवभद्रसूरयः । पंडित सोमचन्द्रोऽप्याकारितः परम् नागन्तु' शक्तः । इदानीं श्री देवभद्र सूरिभिः श्रीमदभयदेवसूरिपट्टे श्री जिनवल्लभ गणिनि वेशितः, सं० ११६७ प्राषाढ़ सुदि ६, चित्रकूटे वीरविधिचत्ये । "क्रमेण ११६७ संवत्सरे कार्तिककृष्णद्वादश्यां रजन्याश्चरमयामे दिन त्रयमनशनं विधाय' 'श्री जिनवल्लभसूरयश्च तुर्थदेवलोकं प्राप्ताः।
---खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावलिः, पृ० १४---
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