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________________ १०२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ I पास के क्षेत्रों में विचरण करते रहे और कुछ समय पश्चात् उन्होंने पत्तन से चित्तौड़ की ओर विहार किया । अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए वे चित्तौड़ पहुँचे । चित्तौड़ में उन्होंने अनेक चैत्यवासी श्रमणोपासकों को वसतिवासी परम्परा का श्रमणोपासक बनाया और आसोज कृष्ण १३ के दिन उन्होंने चित्तौड़ में एक घर में २४ तीर्थङ्करों के चित्रों से मंडित एक चतुर्विंशति जिनपट्टक रखकर भगवान् महावीर के गर्भापहारक नामक छठे कल्याणक महोत्सव को मनाने की प्रथा प्रचलित की । ' परम्परा से तीर्थङ्करों के पंच कल्याणक ही माने गये हैं, पर जिनवल्लभ आचार्य चित्तौड़ में सर्वप्रथम छठा कल्याणक मनाने की प्रथा का प्रचलन किया । आचार्य जिनवल्लभ ने इस छठे कल्याणक का प्रचलन किस संवत् में किया। इस सम्बन्ध में जैन वांग्मय में अन्यत्र तो कोई उल्लेख नहीं मिलता पर आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञानभण्डार, जयपुर में, संकलित प्राचीन ऐतिहासिक सामग्रियों के रजिस्टर में एक प्राचीन पत्र की प्रतिलिपि में, इस सम्बन्ध में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है : ------ (संवत् ) “११३५ नवांगवृत्तिकर्त्ता अभयदेव - कूर्चपुरीय गच्छे जिनेश्वरसूरि शिष्य जिनवल्लभ चित्रकूटे ६ कल्याणक प्ररूपी मत काढ्यो ।” इससे अनुमान किया जाता है कि वि० सं० १९३५ में हुई इस घटना से कुछ वर्ष पूर्व वि० सं० ११२६ से ११३४ के बीच किसी समय अमयदेवसूरि का स्वर्गवास हुआ और उनके स्वर्गस्थ होने के ३८ अथवा ३३ वर्ष पश्चात् देवभद्र आचार्य ने प्राचार्य जिनवल्लभ को उनकी जराजीर्ण अन्तिम अवस्था में विक्रम सं० ११६७ आषाढ़ सुदि ६ के दिन चित्तौड़ में सूरिपद पर अधिष्ठित किया । वे केवल तीन मास और २१ दिन तक ही सूरि पद पर रहे । विक्रम सं० ११६७ की कार्तिक कृष्णा १२ की रात्रि में वे स्वर्गवासी हुए। वे जीवनपर्यन्त चैत्यवासी परम्परा की 1 १. ततः सर्वे श्रावकाः गुरुणा सह देवगृहे गन्तं प्रवृत्ताः । ततो देवगृहस्थितयायिकया गुरून् श्राद्धसमुदायेनागच्छता दृष्ट्वा पृष्टम् — को विशेषोऽद्य ? केनापि कथितम् - वीरगर्भापहारषष्ठ कल्याणकपूजाकरणार्थं समागच्छन्ति । तयाचिन्ति - पूर्वं केनापि न कृतमे करिष्यन्ति न युक्तम् ।.... मयामृतयायदि प्रविशत । श्राद्ध रुक्तम् - वृहत्तरसदनानि सत्येकस्योपरि चतुर्विंशति जिनपट्टकं धृत्वा .... सर्व धर्मं प्रयोजनं क्रियते । गुरुणा भरणतम् " युक्तमेव ।" तत श्राराधितम् विस्तरेण कल्याणकम् । 1 - खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलिः पृ० १० तस्मिन् प्रस्तावे देवभद्राचार्या विहारक्रमं विदधाना प्राहिलपत्तने समायाताः । तत्रागतैश्चिन्तितम् - "प्रसन्न चंद्राचार्येण पर्यन्तसमये भणितं ममाग्रे - " भवता श्री जिनवल्लभगरिणः श्रीमदभयदेवसूरिपट्टे निवेशनीयः ।" स च प्रस्तावोऽद्य । ततः श्री नागपुरे श्री जिनवल्लभग विस्तरेण लेखः प्रेषितः त्वया शीघ्र समुदायेन सह चित्रकूटे समा ( शेष पृष्ठ १०३ पर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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