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________________ विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] [ १०१ स्पष्टतः प्रकट होता है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में भी चैत्यवासी अनेक क्षेत्रों में जैन समाज पर छाये हुए थे । मेवाड़ मारवाड़ आदि अनेक क्षेत्रों में उस समय तक चैत्यवासी परम्परा का जैन समाज पर पूर्ण प्रभुत्व और एकाधिपत्य था । जिनवल्लभसूरि जब चित्तौड़ नगर में पहुंचे तो उन्हें रहने के लिये स्थान तक भी नहीं दिया गया।' अनहिलपत्तन में चैत्यवासियों को पराजित करने के पश्चात् जिनेश्वरसूरि ने गुजरात प्रदेश में निर्बाध रूप से अप्रतिहत विहार कर चैत्यवासी परम्परा के अनुयायियों को वसतिवासी परम्परा का अनुयायी बनाया। वि. सं. ११०८ में श्री जिनेश्वरसूरि ने "गाथासहस्री" नामक ग्रन्थ की रचना की और इसके कुछ ही समय पश्चात् वे स्वर्गवासी हुए। जिनेश्वरसूरि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् अभयदेवसूरि उनके पट्ट पर आसीन हुए। अभयदेवसूरि ने ६ आगमों की टीकाओं की रचना की। अपने गुरु के समान अभयदेवसूरि ने भी वसतिवास का प्रचार-प्रसार कर चैत्यवासी परम्परा के गढ़ों को ढहाने में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वहन किया। अभयदेवसूरि ने स्वर्गस्थ होने से पूर्व यह निश्चय कर लिया था कि उनके पश्चात् सूरिपद पर अधिष्ठित होने के योग्य जिनवल्लभ ही है किन्तु प्रारम्भ में वह कूर्चपुरीय चैत्यवासी प्राचार्य जिनेश्वर सूरि का शिष्य था अतः ऐसे समय इसे सूरिपद पर अधिष्ठित किया गया तो गच्छ के अधिकांश श्रमण एवं श्रमणोपासक इससे सहमत न होंगे । यह विचार कर अभयदेवसूरि ने वर्द्धमानाचार्य को गुरुपद पर अधिष्ठित किया और जिनवल्लभ को अपनी उपसम्पदा प्रदान की। अभयदेवसूरि ने अपने अन्तिम समय में प्रसन्नचन्द्राचार्य को एकान्त में अपने विचारों से अवगत कराते हए यह निर्देश दिया कि समय पाने पर जिनवल्लभ को वे उनके उत्तराधिकारी के रूप में सूरिपद पर अधिष्ठित करें। पर वे भी अपने जीवनकाल में उपर्य क्त कारणवशात् ही संभवतः जिनवल्लभ को अभयदेवसरि के पट्टधर के रूप में सूरि पद पर अधिष्ठित नहीं करा सके । प्रसन्नचन्द्राचार्य ने भी अभयदेवसूरि की भांति ही अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में देवभद्राचार्य को अभयदेवसरि की अन्तिम इच्छा से अवगत कराते हुए उचित समय पर जिनवल्लभ को सूरिपद पर आसीन करने की अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट की। खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में उल्लेख है कि अभयदेव सूरि ने अपने अन्तिम समय में वर्द्ध मानाचार्य को गुरुपद पर अधिष्ठित किया और जिनवल्लभ को अपनी उपसम्पदा दे यथेच्छ विहार करने की आज्ञा प्रदान की । अभयदेवसूरि के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर कतिपय दिनों तक जिनवल्लभ पत्तन और उसके पास स्थानं याचितास्तत्रत्यश्राद्धाः । तंश्च भरिणतं चण्डिका मठोऽस्ति यदि तत्र तिष्ठथ । ततो जिनवल्लभगणिना ज्ञातमशुभबुद्ध या भणन्त्येते तथापि तत्रापि........। -~-खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलिः, पृ. १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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