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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
ग्रहण नहीं करते थे । वे भिक्षार्थ घर-घर भ्रमण कर मधुकरी के माध्यम से निर्दोष आहार -पानी ग्रहण करते थे । '
(७) खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावलिः के "ततो वादं कृत्वा विपक्षान् निर्जित्य राज्ञा राजलोकैश्च सह वसतौ प्रविष्टाः । वसतिस्थापना कृता प्रथमं गुर्जरत्रा देशे।" इस उल्लेख से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि वीर निर्वारण को सोलहवीं शताब्दी में समस्त गुजरात प्रदेश में पूर्ण रूपेण चैत्यवासी परम्परा का ही एकाधिपत्य था । वहां जैन धर्म के शास्त्रीय मूल स्वरूप को मानने वाला और मूल श्रमण परम्परा का उपासक एक भी व्यक्ति नहीं था । देवगिरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के लगभग पौने छः सौ वर्ष पश्चात् गुजरात में वर्द्ध मानसूरि और जिनेश्वरसूरि ने प्रथम बार वसतिवास की स्थापना की ।
..इस प्रकार भारत के बहुत बड़े भाग पर अपने छह सौ पौने छह सौ वर्षों के एकाधिपत्य के पश्चात् ग्रनहिलपुरपत्तन महाराजाधिराज दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वर सूरि के साथ हुए शास्त्रार्थ में चैत्यवासी परम्परा के सूराचार्य प्रभृति चौरासी आचार्यों की पराजय के दिन से ही चैत्यवासी परम्परा अपने चरमोत्कर्ष के पश्चात् ह्रास की ओर उन्मुख हुई ।
यद्यपि चैत्यवासी परम्परा की इस प्रथम पराजय के पश्चात् उसका ( चैत्यवासी परम्परा का ) प्रमुख गढ़ गुजरात ढहना प्रारम्भ हो गया था तथापि मारवाड़, मेवाड़ आदि अनेक प्रदेशों में चैत्यवासियों का जैन समाज पर पूर्ण प्रभुत्व और एकान्ततः एकाधिपत्य था । विक्रम सं० १९६७, आषाढ़ शुक्ला ६ के दिन चित्तौड़ में अभयदेव सूरि के पट्टधर व सूरिपद पर अधिष्ठित और वि० सं० ११६७ की कार्तिक कृष्णा १२ की रात्रि में स्वर्गस्थ हुए जिन वल्लभसूरि को मेवाड़ में विधिमार्ग की स्थापना में चैत्यवासियों के किस प्रकार के प्रत्युग्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, व कैसे चैत्यवासी श्रावकों की एक उग्र भीड़ लाठियाँ लेकर जिन वल्लभसूरि की हत्या करने के लिये उमड़ पड़ी एतद्विषयक उल्लेखों से यह १. "यूयं कति साधवः सन्ति ?" "महाराज ! अष्टादश ।" " एकहस्तिपिण्डेन सर्व तृप्ता भविष्यन्ति ।" ततो भरिणतं जिनेश्वरसूरिणा - "महाराज ! राजपिण्डो न कल्पते, साधूनां निषेधः कृतो राजपिण्डस्य ।" "तहि मम मानुषेऽग्रे भूते भिक्षापि सुलभा भवि व्यति ।" - - वही, पृष्ठ ४
२.
3.
श्रीमदभयदेवसूरिपट्टे श्री जिनवल्लभग रिगनिवेशितः सं० ११६७ प्राषाढ सुदि ६ चित्रकूट वीरविधि चत्ये । - खरतर० वृ० गु०पृ० १४
एटले श्री जिनवल्लभसूरि पर चैत्यवासिनों श्रतिशय गुस्से थई ५०० जरण लाकड़ियो लई तेमने मार मारवा तेमने मुकामे श्राव्या, परन्तु चित्तौड़ ना राणाए तेमने तेम करतां - संघपट्टक की प्रस्तावना, पृ०६
अटकाव्या ।
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