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________________ विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] εε ] वि. सं. १५०३ में महान् धर्मोद्धारक श्री लोकाशाह ने भी ठीक इसी भाँति निर्युक्तियों, वृत्तियों, चूरियों भाष्यों आदि को अमान्य और अप्रामाणिक बताया था । अपने ३४ बोलों में उन्होंने चूरियों आदि को अप्रामाणिक एवं अमान्य ठहराते हुए ३४ प्रमाण दिये हैं । इससे अनुमान किया जाता है कि चैत्यवासी परम्परा के विधि-विधानों से कतिपय अंशों में प्रभावित विभिन्न श्रमण परम्पराओंों ने वीर निर्वारण की १६वीं शताब्दी के पश्चात् चूरियों, निर्युक्तियों, टीकाओं आदि को प्रामाणिक मानना प्रारम्भ किया । ( 4 ) विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले श्रमण कभी ताम्बूल ग्रहण नहीं करते थे । ' (५) विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले श्रमण वीर निर्वाण की १६वीं शताब्दी तक के संक्रान्तिकाल में भी गद्दी का उपयोग करना श्रमण धर्म के विरुद्ध समझते थे, जबकि चैत्यवासी अपनी परम्परा के उद्भव काल से लेकर अवसान काल तक गद्दियों और बहुमूल्य उच्च सिंहासनों परबैठना मान्य कर रहे थे । २ (६) खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली के उल्लेखानुसार वीर निर्वाण की सोलहवीं शताब्दी में वसतिवासी साधु राजपिण्ड अथवा प्रौद्देशिक आहार, पानी आदि ( पृष्ठ ६८ का शेष ) मानयत । शीघ्रमानीतम् । प्रानीतमात्रमेव छोटितम् । तत्र देवगुरुप्रसादाद् दशर्वकालिकं चतुर्दशपूर्वधरविरचितं निर्गतम् । तस्मिन् प्रथममेवेयं, गाथा निर्गता अन्नटं पगडं लेणं, भइज्ज सयणासणं | उच्चारभूमिसम्पन्न, इत्थी पसुविवज्जियं । एवंविधायां वसती वसन्ति साधवो न देवगृहे । राज्ञा भावितं युक्तमुक्तम् । - खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलिः, पृ० ३ राजा च ताम्बूलदानं दातुं प्रवृत्तः । ततः सर्वलोकसमक्षे भरिणतवन्तो गुरव:- " साधूनां ताम्बूलग्रहणं न युज्यते राजन् । यत उक्तम्- ब्रह्मचारियतीनां च विधवाना च योषिताम् । ताम्बूल - भक्षणं विप्रा ! गोमांसान्न विशिष्यते ॥ ततो विवेकीलोकस्य समाधिर्जाता गुरुषु विषये । वही, पृ० ३ २. ततो राजा भरगति - " सर्वेषां गुरुणां सप्त सप्तगन्दिका रत्नपटी - निर्मिताः किमित्यस्मद्गुरूणां नीचैरासने उपवेशनं, किमस्माकं गब्दिका न सन्ति ?" ततो जिनेश्वरसूरिणा भरिणतम् - "महाराज ! साधूनां गव्दिकोपवेशनं न युज्यते । यत उक्तम् ।”. - खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावलिः, पृ० ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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