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________________ १८] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ (२) उस समय गुजरात में मूल श्रमण परम्परा का उपासक एक भी श्रमणोपासक विद्यमान नहीं था।' (३) भगवान महावीर द्वारा धर्मतीर्थ की स्थापना के समय से ही जैन संघ में सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु महावीर की वाणी के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रथित आगम ही प्रामाणिक माने जाते हैं। चैत्यवासियों के परमोत्कर्ष के संक्रान्तिकाल में वीर निर्वाण की सोलहवीं शताब्दी तक जैन धर्म के मूल स्वरूप के उपासक तथा मूल श्रमण परम्परा के श्रमण गणधरों द्वारा ग्रथित एवं चतुर्दशपूर्वधरों द्वारा द्वादशांगीमें से सार रूप में इब्ध आगमों को ही प्रामाणिक मानते थे। खरतरगच्छ के आद्य संस्थापक श्री वर्द्धमान सूरि ने अनहिलपत्तन के महाराजा दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में भी यही बात कही कि वे केवल गणधरों द्वारा ग्रथित एवं चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्यों द्वारा द्वादशांगी में से दृब्ध आगमों को ही प्रामाणिक मानते हैं, न कि अन्य (टीका, चूरिण, भाष्य, अवचूणि अथवा नियुक्ति प्रादि) किसी ग्रन्थ को। १. (क) अन्यत्र स्थानं न लभ्यते, विरोधिरुद्धत्वात् । पृ० २ । (ख) राज्ञोक्तम् ----'"कुत्र यूयं निवसथ ?" तरुक्तम्- "महाराज ! कथं स्थानं विपक्षेषु सत्सु । ...."युष्माकं भोजनं कथम् ?” तदपि पूर्ववर्लभम् । (ग) तहि महाराज ! कः कस्यापि सम्बन्धी जातो, वयं न कस्यापि । ततो राज्ञा मात्मसम्बन्धिनो गुरवः कृताः । -खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली पृष्ठ ४ ततो मुख्य सूराचार्येणोक्तम्-"ये वसती वसन्ति मुनयस्ते षड्दर्शनबाह्या प्रायेण । षड्दर्शनानीह क्षपणकजटीप्रभृतीनि- इत्यर्थनिर्णयाय नूतनवादस्थलपुस्तिका वाचनार्थम् गृहीता करे । तस्मिन् प्रस्तावे "भाविनि भूतवदुपचारः ।" इति न्यायाच्छोजिनेश्वरसूरिणा भणितम्- "श्री दुर्लभ महाराज ! युष्माकं लोके कि पूर्वपुरुष विहिता नीतिः प्रवर्तते प्रथवा प्राधुनिक पुरुषदशिता नूतना नीतिः ?" ततो राज्ञा भरिणतम्- "अस्माकं देशे पूर्वजणिता राजनीतिः प्रवर्तते नान्या: ।' ततो जिनेश्वर सूरिभिरुक्तम् ---"महाराज ! अस्माकं मतेऽपि यद् गणधरश्चतुर्दशपूर्वधरैश्च यो दशितो मार्गः स एव प्रमाणीकतु युज्यते नान्यः ।" ततो राज्ञोक्तम्--"युक्तमेव !" ततो जिनेश्वरसूरिभिरुक्तम् - "महाराज ! वयं दूरदेशादागताः पूर्वपुरुषविरचित- स्वसिद्धान्तपुस्तक वन्दं नानीतम् । एतेषां मठेभ्यो महाराज ! यूयमानयत पूर्व-पुरुषविरचित सिद्धान्तपुस्तकगण्डलकम् येन मार्गामार्ग निश्चयं कुर्मः ।" ततो राज्ञोक्तास्ते--युक्तम् वदन्त्येते, स्वपुरुषान् प्रेषयामि, यूयम् पुस्तकसमपणे निरोपं ददध्वम् । “ते च जानन्त्येषामेव पक्षो भविष्यतीति तूष्णी विधाय स्थितास्ते । ततो राज्ञा स्वपुरुषाः प्रेषिताः-शीघ्र सिद्धान्त पुस्तकगण्डलक (शेष पृष्ठ ६६ के टिप्पणी-स्थल पर देखिये ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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