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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
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यह सुनते ही राजा ने सारी स्थिति को भांप लिया और उन्होंने मन ही मन विचार किया--"जिन न्यायवादियों को मैंने अपने गुरु के रूप में अंगीकार किया है, उनका पीछा ये चैत्यवासी लोग अब भी नहीं छोड़ रहे हैं।" यह विचार कर राजा ने अपने भृत्य को आज्ञा दी---"शीघ्रतापूर्वक पटरानी के पास जाओ और जाकर उनसे मेरा यह संदेश कहो :-- "महाराज ने कहलवाया है कि जो कुछ आपको उपहार के रूप में भेंट किया गया है, उसमें से यदि एक सुपारी तक भी आपने ग्रहण कर ली तो न आप मेरी रहेंगी और न मैं आपका।"
भृत्य ने तत्काल पटरानी के समक्ष उपस्थित हो उन्हें राजा का सन्देश यथावत् कह सुनाया। राजा का सन्देश सुनते ही रानी बड़ी भयभीत हई। उसने उन सभी उपहार भेंट करने वालों से आदेश और आक्रोश भरे स्वर में कहा-"जिसजिस के द्वारा जो जो वस्तु यहाँ लाई गई है वह तत्काल उन सब वस्तुओं को यहाँ से अपने-अपने घर ले जायँ । मुझे इन वस्तुओं से कोई प्रयोजन नहीं है।"
सभी अधिकारी तत्काल अपनी-अपनी वस्तु उठाकर अपने-अपने घर की ओर लौट गये । इस प्रकार चैत्यवासियों का यह पड्यन्त्र भी असफल रहा।
तदनन्तर परस्पर विचार-विमर्श कर उन्होंने यह निश्चय किया कि "यदि राजा दूसरे प्रदेश से आये हुए मुनियों को बहमान देते हैं तो हम सब लोग देव-सदनों को शून्य कर किसी अन्य प्रदेश में चले जायेंगे और इस प्रकार का निश्चय कर वे चैत्यवासी चैत्यों को छोड़कर अन्यत्र चले गये।
__ महाराज दुर्लभराज को जब यह बात विदित हुई तो उन्होंने कहा -- यदि उन लोगों को यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता तो जहाँ चाहें, वहीं जायं। देवगृहों में पूजा के लिए ब्रह्मचारियों को भृति देकर रख दिया गया। सभी देवों की पूजा नियमित रूप से की जाने लगी। चैत्यवासी वस्तुत: सब प्रकार की सुविधाओं एवं सुखोपभोग की सामग्री से युक्त चैत्यों के अतिरिक्त अन्य किसी स्थान पर रह नहीं सकते थे अतः कुछ ही समय पश्चात वे सब के सब चैत्यवासी किसी न किसी बहाने से पुनः अपने-अपने चैत्यगृहों में लौट आये। उधर श्री वर्धमान सूरि बिना किसी रोक-टोक के अनुक्रमशः सभी क्षेत्रों में विचरण करने लगे।"
खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली के उपर्युल्लिखित विस्तृत उल्लेख से निम्नलिखित तथ्य प्रकाश में आते हैं :
(१) वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक गुजरात में चैत्यवासियों का पूर्णतः एकाधिपत्य था ।
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