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________________ ६६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ — चैत्यवासी उन वसतिवासी साधुओं को वाद में पराजित कर पाटन राज्य से बाहर निकलवाना चाहते थे पर वे स्वयं ही वसतिवासियों से वाद में पराजित हो गये । इस प्रकार वर्द्ध मानसूरि को पाटण से बाहर निकलवाने के अपने पहले उपाय में वे असफल रहे । वाद से पूर्व चैत्यवासियों ने उन वसतिवासियों पर किसी शत्रु राजा के गुप्तचर होने का आरोप लगाकर उन्हें राज्य से बाहर निकलवाने का षड्यन्त्र किया था, उसमें भी उनको असफलता मिली । तदनन्तर चैत्यवासियों के उपासक राज्याधिकारियों ने राजा के समक्ष यह बात रखी कि क्योंकि इनके कोई उपासक यहां नहीं हैं अतः ऐसी स्थिति में उन वसतिवासियों को पाटरण में रहने का कोई अधिकार नहीं । उनका यह उपाय भी निष्फल रहा क्योंकि स्वयं राजा उन वसतिवासियों का उपासक बन गया । अपने इन उपायों में असफल रहने के उपरान्त भी वे चुप नहीं बैठे । उन्होंने परस्पर मन्त्ररणा कर वसतिवासियों को पाटण से बाहर निकलवाने का एक और षड्यन्त्र रचा। उन चौरासी चैत्यवासी प्राचार्यों ने अपने अपने उपासकों से कहा कि राजा अपनी पटरानी की कोई भी बात नहीं टालता । अतः तुम लोग अनेक प्रकार के बहुमूल्य उपहार ले कर राजा की पट्टमहिषी के पास जाओ और उसे उन अमूल्य उपहारों से प्रसन्न कर इन वसतिवासियों को पाटण की सीमा से बाहर निकलवा | अपने अपने आचार्यों के आदेश को शिरोधार्य कर समस्त राज्याधिकारी वर्ग अनेक प्रकार के बहुमूल्य आभरणालंकार, वस्त्र, फल, फूल, मेवा मिष्टान्नादि से भरे अनेकों बड़े-बड़े पात्र, गट्ठर, टोकरे आदि ले कर पटरानी की सेवा में उपस्थित हुए। उन बहुमूल्य उपहारों को प्राप्त कर रानी बड़ी प्रसन्न हुई । उस अधिकारी वर्ग ने पटरानी को प्रसन्न देख वसतिवासियों को राज्य की सीमा से बाहर निकलवाने हेतु अपना अभीप्सित मनोरथ पटरानी के समक्ष रखना प्रारम्भ किया । ठीक उसी समय दुर्लभराज ने किसी परमावश्यक कार्यवशात् ग्रपने एक भृत्य को पटरानी के पास भेजा । वह भृत्य संयोगवश मूलतः दिल्ली का निवासी था । चैत्यवासियों के उपासकों द्वारा भेंट किये गये बहुमूल्य विपुल उपहारों को देखते ही वह समझ गया कि उसके प्रदेश से आये हुए साधुत्रों को राज्य की सीमा से बाहर निकलवाने के लिए पड्यन्त्र किया जा रहा है। उसने वसतिवासी साधुयों की सहायता करने का संकल्प किया। पटरानी को राजा का सन्देश सुना कर वह भृत्य राजा के पास लौट गया । उसने राजा से निवेदन किया- "देव ! मैंने पटरानीजी की सेवा में आपका सन्देश प्रस्तुत कर दिया। परन्तु देव ! मैंने वहाँ अद्भुत कौतुक देखा । जिस प्रकार यहाँ अर्हतु की मूर्ति के समक्ष विविध वलि नैवेद्यादि प्रस्तुत किये जाते हैं, उसी प्रकार रानी हेतु स्वरूपा बनी हुई हैं और उनके समक्ष अनेक प्रकार के बहुमूल्य आभूषण वस्त्रालंकार, फल, मेवे, मिष्टान्नादि के ढेर लगे हुए हैं ।" 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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