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विकृतियों के विकास को पृष्ठभूमि ]
[६५ महाराज दुर्लभराज ने जिनेश्वरगरिण से पूछा-"आप लोग किस (प्रकार के) स्थान में रहते है ?"
जिनेश्वरगरिण ने उत्तर दिया-"महाराज! विपक्षियों का जहां प्राबल्य हो, वहां हमें रहने के लिये स्थान मिल ही कैसे सकता है।"
दुर्लभराज ने अपने एक राज्याधिकारी की ओर इंगित करने के साथ साथ जिनेश्वरगरिण से कहा-“करडीहट्टी में संततिविहीनावस्था में मृत" श्रेष्ठि का जो विशाल भवन है, उस भवन में आप रहें।" तित्क्षरण उन वसतिवासी साधुनों के लिये उस भवन में ठहरने की व्यवस्या कर दी गई।
राजा ने जिनेश्वरसूरि से पुनः पूछा--"आपका भोजन कहां और किस प्रकार होता है?"
जिनेश्वरगरिण ने उत्तर दिया-"महाराज ! भोजन भी रहने के स्थान के समान ही दुर्लभ है।" __ दुर्लभराज-"पाप कितने साधु हैं ?"
जिनेश्वरगणि-"महाराज ! हम १८ साधु हैं।"
दुर्लभराज-एक हस्तिपिण्ड (एक हाथी की जिससे क्षुधातृप्ति हो जाय, उतने परिमाण की भोजन सामग्री) से आप सब तृप्त हो जायेंगे?"
जिनेश्वरगणि:--- "राजन्! राजपिण्ड साधुओं के लिये कल्पनीय नहीं है । शास्त्रों में साधु को राजपिण्ड ग्रहण करने का निषेध किया गया है।"
दुर्लभराज-"अच्छा, ऐसी बात है तो मेरा एक प्रादमी भिक्षाटन के समय प्रापके साथ हो जायेगा, इसमे आपको सर्वत्र भिक्षा मुलभ हो जायगी।"
तदनन्तर शास्त्रार्थ में अपन विपक्षी चैत्यवासी प्राचार्यों को पराजित कर वर्द्ध मानसूरि ने अपने शिष्यपरिवार सहित राजा और नागरिकों के साथ वसति में प्रवेश किया। इस प्रकार विक्रम सम्वत् ८०२ में अराहिलपूरपत्तन के राजा वनराज चावड़ा के गुरु चैत्यवासी आचार्य शीलगुणसूरि ने चैत्यवासी परम्परा के अतिरिक्त अन्य सभी परम्पराओं के साधु-साध्वियों के पाटण राज्य की सीमा में प्रवेश तक पर प्रतिबन्ध लगाने वाली राजाज्ञा वनराज से प्रसारित करवाई थी, उस निषेधाज्ञा को लगभग २७५ वर्ष पश्चात् विक्रम सम्वत् १०७५ के प्रासपास वर्द्ध मानसूरि ने तत्कालीन पत्तनपति दुर्लभराज से निरस्त करवा कर गुजरात प्रदेश में प्रथम वार पुनः वसतिवास की स्थापना की।
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