________________
विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
[ ६३ जिनेश्वरसूरि की न्यायसंगत मांग को स्वीकार करते हुए महाराज दुर्लभराज ने सूराचार्य प्रभृति चैत्यवासी आचार्यों को सम्बोधित करते हुए कहा-"इनका कथन पूर्णतः युक्तिसंगत है । मैं अपने अधिकारियों को भेजता हूं, आप उन आगमग्रन्थों को देने में किसी प्रकार की आनाकानी न करें।"
चैत्यवासी भलीभांति जानते थे कि यदि आगम ग्रन्थों को मंगवाया गया तो उन आगमग्रन्थों से इन वसतिवासियों का पक्ष ही पूर्णतः परिपुष्ट होगा, अतः वे मौन साधकर चुपचाप बैठे ही रहे। इस पर राजा ने अपने राज्याधिकारियों को प्राज्ञा दी--"इनके मठ में जाओ और शास्त्रों के बस्ते लेकर शीघ्र आओ।"
(राजाज्ञा को शिरोधार्य कर राज्याधिकारी चैत्यवासियों के मठ में गये और वहां से प्रागमों के बस्ते लेकर शीघ्रतापूर्वक दुर्लभराज की सेवा में लौटे । उन शास्त्रों के बस्तों को तत्काल खोला गया। अरिहंत देव और गुरु की कृपा से उन बस्तों में से चौदह पूर्वधर आचार्य सय्यंभव द्वारा रचित दशवैकालिक सूत्र की प्रति ही सर्वप्रथम हाथ में पाई। उन्होंने दशवकालिक सूत्र में से उसके पाठवें अध्ययन की निम्नलिखित गाथा बताई :
अन्नट्ठ पगडं लेणं, भइज्ज सयणासणं ।
उच्चारभूमि संपन्न, इत्थीपमुविवज्जियं ।।५२।। अ० ८।। अर्थात् गहन्थ ने जो घर माधु के लिये नहीं अपितु दूसरों के लिये अथवा अपने लिये बनाया हो, जिस घर में मल, मूत्रादि के परठने (विसर्जन) के लिये स्थान हो और जो घर स्त्री, पशु प्रादि मे रहित हो, उस घर में साधु को ठहरना चाहिये तथा जो शय्या अर्थात् पाठ, फलक, पाट, पाटलादि गृहस्थ ने अपने लिये बनाये हों, उन्हें साधु अपने उपयोग हेतु गृहस्थ से ले सकता है।
पण्डित जिनेश्वरगरिण ने इस गाथा और इसके अर्थ को सभ्यों के समक्ष सुनाते हुए कहा - "इस प्रकार की वसति में, इस प्रकार के घर में साधु को रहना चाहिये न कि देवगृह में।"
राजा ने निर्णायक स्वर में कहा -“बिल्कुल ठीक एवं युक्तिसंगत तथ्य है।"
सब अधिकारियों का अनुभव हुआ कि उनके गुरु निरुत्तर हो गये हैं । निरुत्तर हुए अपने गुरुयों की सहायता करते हुए श्रीकरण से लेकर पटव पर्यन्त सभी राज्याधिकारी कहने लगे - "हम में से प्रत्येक के ये गुरु हैं । राजा हमको बहुत मानते हैं, इसी कारगा हमारे गुरुग्रों को भी मानते हैं।"
___ उनके कहने का तात्पर्य यह थाकि हम सब चैत्यवासी आचार्यों के उपासक हैं और इन वमतिवासियों का ना कोई एक भो उपासक यहाँ नहीं । अतः राजा भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org