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________________ ९२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ यह सुनते ही विवेकशील व्यक्तियों के हृदय में इन वसतिवासी साधुओं के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हो गई। ___ शास्त्रार्थ प्रारम्भ करने का उपक्रम करते हुए वर्द्धमानसूरि ने वादस्थल पर उपस्थित सभी सभ्यों को लक्ष्य कर कहा-"शास्त्रार्थ के समय यह पण्डित जिनेश्वर उत्तर प्रत्युत्तर में जो कुछ कहेंगे, उसे मेरे द्वारा पूर्णत: सम्मत समझा जाय।" सब सभ्यों ने एक स्वर में कहा-"ऐसा ही हो।" तिदनन्तर वाद हेतु अपना पूर्व पक्ष प्रस्तुत करते हुए उन चैत्यवासियों के मुख्य प्राचार्य सूराचार्य ने कहा-"जो मुनि वसति में रहते हैं, वे प्रायः षड्दर्शनबाह्य हैं । षड्दर्शन में क्षपणक, जटी प्रभृति आते हैं। अपने इस पूर्वपक्ष को प्रमाणपुरस्सर परिपुष्ट करने के लिये सूराचार्य ने नव्य वाद की पुस्तक को, एतद्विषयक उसके उल्लेख पढ़ कर सुनाने हेतु, अपने हाथ में उठाया। जिनेश्वरगरिण ने तत्काल बीच में ही टोकते हए अनहिलपत्तनाधीश को लक्ष्य कर कहा-'श्री दुर्लभ महाराज ! आपके राज्य में पूर्व पुरुषों द्वारा निर्धारित नीति चलती है अथवा आज कल के पुरुषों द्वारा निर्मित नीति ।" राजा तत्काल बोला- हमारे देश में पूर्व पुरुषों द्वारा निर्मित एवं निर्धारित नीति चलती है, न कि कोई अन्य नीति ।" इस पर जिनेश्वरसूरि ने कहा- “महाराज ! हमारे धर्म में भी गणधरों एवं चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवलियों ने जो धर्ममार्ग प्रदर्शित किया है, वही प्रामाणिक माना जाता है । गणघरों एवं चतुर्दश पूर्वधरों को छोड़ किसी अन्य द्वारा प्रदर्शित मार्ग को हमारे मत में कदापि मान्य अथवा प्रामाणिक नहीं स्वीकार किया जा सकता।" दुर्लभराज महाराज ने तत्काल कहा-“यह तो पूर्णत: उचित एवं युक्तिसंगत ही है।" राजा द्वारा अपनी बात का समर्थन किये जाने पर जिनेश्वरसूरि ने कहा"राजन् ! हम लोग बड़े दूरस्थ प्रदेश से यहां आये हैं, इस कारण हम अपने साथ हमारे पूर्वपुरुष गणधरों एवं चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा रचित आगम ग्रन्थों को यहां नहीं ला सके हैं। अतः महाराज ! आपसे निवेदन है कि इन चैत्यवासियों के मठों से रमारे पूर्व पुरुषों द्वारा रचित शास्त्रों के बस्ते मंगवाइये, जिससे कि सन्मार्ग और उन्मार्ग का निर्णय किया जा सके।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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