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________________ विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] राजपुरोहित ने चैत्यवासी आचार्यों के पास जाकर जैसा वर्द्धमान सूरि ने कहा था वही कहा । चैत्यवासी आचार्यों ने सोचा कि छोटे से लेकर बड़े से बड़े राज्याधिकारी तक सभी लोग हमारे वशवर्ती हैं, अत: उनसे किसी भी प्रकार का भय नहीं है। ऐसी स्थिति में राजा के समक्ष ही शास्त्रार्थ हो जाय। इस प्रकार विचार कर चैत्यवासी प्राचार्यों ने सबके समक्ष कहा-"प्रति विशाल पंचाशरीय देवमन्दिर में अमुक दिन शास्त्रार्थ होगा।" राजपुरोहित ने राजा दुर्लभराज से एकान्त में कहा-"राजन् ! दिल्ली से आये हुए मुनियों के साथ चैत्यों में नियत निवास करने वाले यहां के चैत्यवासी मुनि चर्चा करने के लिये समुत्सुक हैं । ऐसा शास्त्रार्थ न्यायवादी राजा के समक्ष हो तभी शोभा देता है। इसलिए शास्त्रार्थ के समय वादस्थल पर आपकी कृपापूर्ण उपस्थिति सादर प्रार्थनीय है।" दुर्लभराज ने स्वीकृति प्रदान करते हुए राजपुरोहित से कहा-"वस्तुतः यह समुचित है । हम वादस्थल पर अवश्य ही उपस्थित रहेंगे।" तदनन्तर विक्रम सम्वत् १०८४ में शास्त्रार्थ के लिए निश्चित दिन और निश्चित समय पर पंचाशरीय देवमन्दिर में सूराचार्य आदि ८४ ही आचार्य अपनी वरिष्ठता के अनुरूप सिंहासनों पर बैठे। राजा दुर्लभराज भी राजसिंहासन पर उपविष्ट हुए। राजा ने पुरोहित को सम्बोधित करते हुए कहा-"पुरोहित जी ! अपने उन साधुओं को लाइये।" राजपुरोहित ने घर जाकर वर्द्ध मानसूरि से निवेदन किया-"महात्मन् ! सभी आचार्य अपने शिष्यपरिवार सहित वादस्थल पर आ बैठे हैं। महाराज दुर्लभराज भी पंचाशरीय मन्दिर में आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजा ने उन आचार्यों को ताम्बूल समर्पित कर सम्मानित किया है।" सुधर्मास्वामी आदि सभी युगप्रधानों का हृदय में ध्यान धर कर श्री वर्द्ध मानसूरि भी अपने पण्डित जिनेश्वरसूरि आदि कतिपय आगम निष्णात मुनियों को साथ लेकर पंचाशरीय मन्दिर की ओर प्रस्थित हुए। वहां पहुंचने पर राजा द्वारा प्रदर्शित स्थान पर पण्डित जिनेश्वर द्वारा बिछाये गये आसन पर वर्द्ध मानसूरि बैठे और उनके चरणों के पास ही जिनेश्वरगणि भी बैठ गये। राजा दुर्लभराज आचार्य वर्द्धमानसूरि को ताम्बूल अर्पण के लिये समुद्यत हुए। यह देख कर वर्द्ध मानसूरि ने कहा-"राजन् ! साधु के लिए ताम्बूलचर्वण करना और ताम्वूलग्रहण करना सर्वथा निषिद्ध है क्योंकि धर्म-नीति में ब्रह्मचारियों, साधुनों व विधवाओं के लिये ताम्बूलचर्वण, अत्यन्त निन्दनीय और निषिद्ध बताया गया है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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