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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
[ ८६ (अता
। पर आरूढ़ किये गये भूले भटके लोगों को, जैन धर्मावलम्बियों को धर्म का सच्चा स्वरूप बताने के लिए जिनेश्वरगणि ने अपने गुरु वर्द्ध मानसूरि से प्रार्थना की।
पण्डित जिनेश्वरगणि की प्रार्थना को स्वीकार कर वर्द्ध मानसूरि ने अपने १७ साधुओं के साथ दिल्ली से गुजरात की ओर विहार किया। विहारक्रम से पल्ली ( सम्भवतः पाली-मारवाड़ ) होते हुए कालान्तर में वे अनहिलगत्तन पहुंचे। वहां सुसाधुओं का भक्त एक भी श्रावक नहीं था. जिससे कि वे रहने के लिये स्थान की याचना करते ।' ऐसी स्थिति में वे नगर के बाहर एक मण्डपिका (छतरी) में उतरे और स्वाध्याय ध्यानादि आवश्यक धर्मकृत्यों में निरत हो गये। उस छतरी में धूप और भूख-प्यास को सहन करते हुए कुछ समय तक ठहरने के पश्चात् जिनेश्वरगरिण ने अपने गुरु से निवेदन किया--"भगवन् ! इस प्रकार बैठे रहने से तो कोई कार्य होने वाला नहीं है।"
वर्द्ध मानसूरि ने पूछा-"तो फिर क्या किया जाय ? सौम्य !"
जिनेश्वरगणि ने निवेदन किया--"भगवन् ! यदि आपकी प्राज्ञा हो तो मैं उस विशाल भवन में जाऊं, जो यहां से दिखाई दे रहा है।"
गुरु की आज्ञा प्राप्त कर पण्डित जिनेश्वरगणि उस भवन की ओर प्रस्थित हुए। वह भवन अनहिलपत्तन राज्य के महाराजा दुर्लभ राज के राजपुरोहित) का था। बात ही बात में पण्डित जिनेश्वरगरिण के पाण्डित्य से राजपुरोहित बड़ा प्रभावित हुआ। उसने जिनेश्वरगरिण से पूछा :--"आप कहां से आये हैं और कहां ठहरे हैं ?" जिनेश्वरगणि ने कहा-"हम दिल्ली से आये हैं और बाहर एक खुली छतरी में ठहरे हैं । यह प्रदेश हमारे विरोधियों से भरा पड़ा है, यहां हमारा कोई उपासक नहीं है । हम १८ साधु हैं।"
यह सुनकर राजपुरोहित ने अपने भवन के एक भाग में उन्हें ठहरने की अनुमति प्रदान की। वर्द्धमानसूरि अपने १७ शिष्यों सहित राजपुरोहित के भवन के एक भाग में आकर ठहरे । पुरोहित के सेवकों ने उन साधुओं के साथ जाकर उन को ब्राह्मणों के घर बताये जहां से उन्हें उनकी आवश्यकतानुसार भिक्षा प्राप्त हुई। उसी समय सारे नगर में यह बात फैल गई कि पत्तन में वसतिवासी साधु आये हुए हैं । चैत्यवासियों ने उन वसतिवासी साधुओं के आगमन की बात सुनते ही उन्हें वहां से निकलवा देने हेतु षड्यन्त्र रचना प्रारम्भ कर दिया। सारे नगर में और राजभवन एवं राजसभा तक में अपने चाटुकारों के माध्यम से चैत्यवासियों ने यह
""क्रमेणानहिलपत्तने प्राप्ताः । उत्तरिता मण्डपिकायाम् । तस्मिन् प्रस्तावे तत्र प्राकारो नास्ति, सुसाधुभक्त श्रावकोऽपि नास्ति यः स्थानादि याच्यते । तत्रोपविष्टानां धर्मा निकटीभूतः । वही, पृष्ठ २
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