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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
की पट्टावलियों को चैत्यवासियों ने नष्ट करवा दिया हो। उस संक्रान्तिकाल के घटनाचक्र के पर्यालोचन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस संक्रान्तिकाल में अनेक प्रदेशों के, अनेक राज्यों एवं क्षेत्रों के जैनधर्मावलम्बी सामूहिक रूप से चैत्यवासी परम्परा के अनुयायी बने। उस प्रकार की स्थिति में उन प्रदेशों में रहीं मूल श्रमण परम्परा की पट्टावलियों के नष्ट किये जाने अथवा नष्ट हो जाने की भी प्रबल सम्भावना अनुमानित की जाती है । यही कारण है कि देर्वाद्धगरिण के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर अनेक शताब्दियों तक मूल श्रमण परम्परा के अविच्छिन्न गति से क्रमिक क्षीण और क्षीण से क्षीणतम रूप में प्रवहमान रहने पर भी उस मूल श्रमण परम्परा की देवद्धिगरिण के उत्तरवर्तीकाल की पट्टपरम्पराए अथवा पट्टावलियां आज कहीं उपलब्ध नहीं होतीं। स्वयं भगवान् महावीर के मुखारविन्द से प्रकट हुई इस दिव्य ध्वनि-"गौतम मेरा धर्मसंघ पंचम प्रारक के अवसान काल के अन्तिम दिन तक रहेगा'-के अनुसार, जिसका कि भगवती सूत्र में स्पष्ट उल्लेख विद्यमान है तथा महानिशीथ के उपरिवरिणत तीन उल्लेखों एवं खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में हुए वनवासी परम्परा के प्राचार्य उद्योतन सूरि के उल्लेख आदि परस्पर एक-दूसरे से भली-भांति परिपुष्ट प्रमारणों से यह पूर्णत: सिद्ध होता है कि मूल श्रमण परम्परा और जैन धर्म का मूल स्वरूप ये दोनों ही तीर्थप्रवर्तन काल से आज तक अविच्छिन्न रूप से निरन्तर प्रवहमान एक धारा के रूप में चले आ रहे हैं। ये दोनों इन विगत ढाई हजार वर्षों की सुदीर्घावधि में गौण अथवा गुप्त अवश्य हुए पर लुप्त कभी नहीं हुए।
जैन धर्म के मूल आध्यात्मिक स्वरूप और मूल श्रमण परम्परा के गोगा अथवा गुप्त होने में मुख्य कारण काल प्रभाव के साथ-साथ चैत्यवामी परम्परा ही रही।
चैत्यवासी परम्परा में भी ज्यों-ज्यों ममय बीतता गया त्यों-त्यों विघटनकारी मतभेद उत्पन्न होते गये। कालान्तर में चैत्यवासी परम्परा में भी भिन्न-भिन्न मान्यताओं वाले गच्छों की उत्पत्ति हई। छोटे-छोटे गच्छों को तो गगणना करना भी कठिन कार्य था, बड़े-बड़े प्रमुख गच्छों की संख्या भी चौगमी (८४) तक पहुंच गई।' प्रत्येक गच्छ के प्राचार्य और अनुयायी दूसरे गच्छों को अपने गच्छ मे होन और अपने गच्छ को ही सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि एवं सबसे बड़ा सिद्ध करने में प्रयत्नशील
१. इह गाथाप्रत्थं चितिऊण संसारापो विरत्तो नीसरिऊण प्रणहिल्लपुरपट्टणे गयो। तत्थ
चुलसी पोमहमाला, चुलसी गच्छवासिणो भट्टारगा वसंति । जिरणवल्लहो जत्य जत्थ पोसहसालाए गच्छइ पुच्छइ, पिच्छइ, कत्थवि चित्तरइ न जायइ ।।
-खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलिः, पृ० ६० (ख) अबोहरदेशे गिननन्द्राचार्या देवगृहनिवासिन चतुरशीतिस्थावलकनायका प्रासन् ।
वही, पृष्ट ?
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