________________
८६ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
उसी मूल स्वरूप के उपासक मूल श्रमण परम्परा के श्रमरण उस घोर संक्रान्तिकाल में भी विद्यमान थे और शास्त्रों में प्रतिपादित धर्म के मूल स्वरूप को वे समय-समय पर लोगों के समक्ष उस संक्रान्तिकाल में भी बड़ी निर्भीकता के साथ रखते थे। उस संक्रान्तिकाल में मूल श्रमण परम्परा के श्रमणों की विद्यमानता के प्रमाण तो इस प्रकार उपलब्ध होते हैं किन्तु देवद्धिगणि श्रमाश्रमण के पश्चात् मूल श्रमण परम्परा की-वाचनाचार्य परम्परा और वीर नि० सं० १००० तक प्रचलित रही गणाचार्य परम्पराओं की पट्टावलियां आज जैन वांग्मय में कहीं उपलब्ध नहीं होती। जिस वाचनाचार्य परम्परा के महान् प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण ने १४ वर्ष तक अथक प्रयास करके मूल अंगों, उपांगों एवं पागमों को लिपिबद्ध करवाया, पुस्तकारूढ कर जैन धर्मावलम्बियों पर असीम उपकार किया, उन महान् उपकारी देवद्धि क्षमाश्रमण का उत्तराधिकारी आचार्य कौन हुआ इसका उल्लेख आज सम्पूर्ण जैन वांग्मय में खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होता, उनके किसी शिष्य, प्रशिष्य अथवा प्रशिष्यानुअशिष्य तक का नाम भी कहीं उपलब्ध नहीं होता। यह स्थिति बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण और आश्चर्यजनक है ।
वीर नि० सं० १८० से १९४ तक निरन्तर चौदह वर्षों के कठोर परिश्रम से आर्य देवद्धि ने आगमों को पुस्तकारूढ़ करवाया। इतना बड़ा कार्य विशाल शिष्य समुदाय की सहायता के बिना सम्पन्न होना कदापि सम्भव प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार की स्थिति में देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होते ही वाचनाचार्य परम्परा अथवा आगमलेखन में उनके सहायक आर्य कालक मादि की शिष्य परम्पराए हठात् ही विलुप्त हो गई हों, इस पर तो कोई भी विश्वास नहीं कर सकता । वस्तुतः ऐसा होना सम्भव भी प्रतीत नहीं होता कि शताब्दियों तक जैन संघ में बहुजन सम्मत, बहुजन मान्य और परमपूज्य रही वाचनाचार्य परम्परा जैसी सुविख्यात मूल श्रमण परम्परा देवद्धिगरिग के स्वर्गस्थ होते ही सहसा विलुप्त हो जाय । चैत्यवासी परम्परा के अभ्युदय, समुत्थान और उत्कर्ष काल के घटनाचक्र को ध्यान में रखते हए विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि देवद्धिगणि के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर वाचनाचार्य परम्परा के साथ-साथ मूल श्रमण परम्परा की गणाचार्य परम्पराओं का भी ह्रास होना प्रारम्भ हो जाने के उपरान्त भी अनेक शताब्दियों तक इन परम्पराओं के श्रमरण-श्रमरिणयों एवं श्रावक-श्राविकाओं का अस्तित्व रहा। ज्यों-ज्यों मूल श्रमण परम्परा की इन विभिन्न धाराओं का उत्तरोत्तर क्रमिक ह्रास होता गया, त्यों-त्यों उनकी पट्टपरम्परायों को लोग भूलते गये। इन परम्पराओं के श्रमरणोपासकों की संख्या जब क्षीरण से क्षीणतर होती चली गईं तो इन परम्पराओं को पट्टावलियां भी शनैः शनैः विलुप्त होती गई । यह भी सम्भव है कि जिन-जिन राज्यों में राजाज्ञाए प्रसारित करवा कर चैत्यवासी परम्परा ने मूल श्रमण परम्परा के साधु-साध्वियों का प्रवेश तक निषिद्ध करवा दिया था, उन राज्यों के धर्मस्थानों में रहीं मूल श्रमण परम्परा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org