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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
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वीर नि० की १६ वीं शताब्दी में वनवासी परम्परा के प्राचार्य उद्योतन सूरि की भारत के उत्तरवर्ती क्षेत्र में विद्यमानता के इस उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि चैत्यवासियों के चरमोत्कर्ष काल में भी भगवान् महावीर द्वारा स्थापित चतुर्विध तीर्थ का मूल स्वरूप विद्यमान रहा । चैत्यवासी परम्परा द्वारा जैन धर्म के मूल स्वरूप तथा मूल श्रमणाचार को विकृत कर दिये जाने और चैत्यवासियों के सर्वग्रासी एकाधिपत्य के उपरान्त भी जैन धर्म का मूल स्वरूप एवं श्रमण परम्परा चैत्यवासी परम्परा के बाह्याडम्बरपूर्ण घटाटोप में गौण और गुप्तप्रायः तो अवश्य हो गये पर लुप्त नहीं हुए। जो मूल श्रमण परम्परा का प्रवाह वीर नि० सं० १००० तक उत्ताल तरंगों से उद्वेलित किसी महानदी के वेग के समान प्रवाहित होता रहा, वह चैत्य ..सी परम्परा के उत्कर्षकाल में उस रूप में नहीं रहा, मन्द हो गया, मन्दतर भी हो गया पर वह अवरुद्ध नहीं हुआ, लुप्त नहीं हुआ । षष्ठम प्रारक में गंगा नदी के क्षीण प्रवाह के समान मल श्रमण परम्परा का प्रवाह चैत्यवासी परम्परा के उस परमोत्कर्ष के संक्रान्तिकाल में भी मन्द-मन्द मन्थर गति से प्रवाहित होता ही रहा । निहित स्वार्थ अथवा पूर्वाग्रहग्रस्त अन्य परमाराओं के अनुयायियों ने मूल श्रमण परम्परा की उस अति क्षीणावस्था को लुप्तावस्था की संज्ञा दे डाली । पर यत्र तत्र बिखरे पड़े ऐतिहासिक तथ्यों के प्रकाश में एक बात स्पष्ट है कि उस ६००-७०० वर्ष के घोर संक्रान्तिकाल में भी मूल श्रमण परम्परा न केवल जीवित ही रही अपितु प्रबुद्ध भी रही।
महानिशीथ के तीन प्राख्यान-- सावद्याचार्य का पाख्यान, वज्रस्वामी और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थित उनके ५०० शिष्यों का प्राख्यान और द्रव्यार्चन एवं भावार्चन का आख्यान ----ये तीन आख्यान इस बात के प्रमाण हैं कि भगवान् महावीर द्वारा तीर्थप्रवर्तन के समय धर्म का जो स्वरूप प्रकट किया गया था, धर्म के
१. (क) प्रभोहर देणे जिन चन्द्राचार्या देवगृहवासिनश्चतुरशीतिस्थावलकनायका मासन् ।
तेषां वर्धमान नामा शिष्यः । तस्य च सिद्धान्त वाचनां गृह्णतश्चतुरशीति-राशातना: समायाताः । ताश्च परिभावयत इयं भावना मनसि समजनि-“योता रक्ष्यन्ते तथा भद्र भवति ।" व्रतगुरोश्च निवेदितम् । गुरुणा चिंतितं "प्रस्य मनो न मनोहरम्" इति ज्ञात्वा मूरिपदे स्थापितः । तथापि तस्य मनो न रमते चैत्यवासगृहे स्थातुम् । ततो गुरो: सम्मत्या निगंत्य कतिचिन् मुनिसमेतो ढिली वा दली प्रभृति देशेषु समा यात । तस्मिन् प्रस्तावे, तत्रवोद्योतनाचार्य सूरिवर प्रासीत् । तस्य पार्श्वसम्गगाग मतत्वं बुद्ध वा उपसम्पदं गृहीतवान् । ... ....खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावलि पृष्ठ १.
(ख) प्रहन्नया कयाई सिरिवद्धमाणसूरिपायरिया प्ररन्नचारिगच्छनायगसिरि उज्जोयण
मूरिपट्टधारिणो........!-वही, पृ० ८६
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