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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] का एक पुष्ट ऐतिहासिक प्रमाण आज भी उपलब्ध है कि विक्रम सम्वत् ८०२ में अणहिलपुर पाटण के राजा वनराज चावड़ा के गुरु चैत्यवासी प्राचार्य शीलगुणसूरि ने राजा से राजाज्ञा प्रसारित करवा कर चैत्यवासी परम्परा के साधुसाध्वियों को छोड़ शेष सभी अन्य परम्परात्रों के साधु-साध्वियों का पाटण राज्य की सीमा में प्रवेश तक बन्द करवा दिया था। उस राजाज्ञा का वि० सं०८०२ से लगभग वि० सं० १०७५ पर्यन्त निरन्तर २७५ वर्ष तक अपहिलपुर पाटण के सम्पूर्ण राज्य में पूरी कड़ाई के साथ पालन किया गया। इससे विश्वास किया जाता है कि अराहिलपुर पाटण ही की तरह जहां-जहां उन दिनों चैत्यवासियों का वर्चस्व रहा होगा, जिन-जिन राज्यों में चैत्यवासी राजमान्य हुए होंगे, उन सभी राज्यों में भी चैत्यवासियों ने अपने प्रभाव को और अर्थबल को उपयोग में लेकर इस प्रकार की राजाज्ञाएं निश्चित रूप से प्रसारित करवाई होगी।
जिन राज्यों में चैत्यवासियों को राज्याश्रय प्राप्त हुआ, उन राज्यों में विशुद्ध श्रमरणाचार का पालन करने वाली मूल श्रमण परम्परा के श्रमणों एवं श्रमणियों के प्रवेश तक को रोकने वाली राजकीय निषेधाज्ञाएं प्रसारित करवा कर ही चैत्यवासियों ने अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझ ली। उन्होंने उन राज्यों में विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाली मूल श्रमण परम्परा के नामशेष तक मिटाने के पूरे प्रबल प्रयास करने में भी किसी प्रकार की कमी नहीं रखी। जिन राज्यों में पौने तीन-तीन सौ वर्षों जैसी सुदीर्घावधि तक एक ही परम्परा का पूर्ण एकाधिपत्य रहे, पूर्ण वर्चस्व रहे- पूरा बोलबाला रहे, अन्य परम्परा के किसी भी साधु को उन राज्यों की सीमा तक में नहीं घुसने दिया जाय, उन क्षेत्रों में क्या दूसरी परम्पराओं का नामशेष तक भी अवशिष्ट रह सकता है ? कदापि नहीं । यही कारण था कि जिन राज्यों में चैत्यवासी परम्परा का दो-दो, तीन-तीन शताब्दियों तक पूर्ण वर्चस्व और पूर्ण एकाधिपत्य रहा, उन राज्यों में विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा का कोई अनुयायी और यहां तक कि नाम लेने वाला तक नहीं रहा।
___ इस प्रकार राज्याश्रय प्राप्त कर चैत्यवासी परम्परा भारत के विभिन्न भागों में प्रसूत हई, फैली और फली फली । वीर निर्माण की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक तो चैत्यवासी परम्परा का भारत के अधिकांश भागों में पूर्ण वर्चस्व और एक प्रकार से पूर्ण-रूपेण एकाधिपत्य रहा । जिन राज्यों में चैत्यवासियों ने अपनी परम्परा से भिन्न श्रमण परम्परा के श्रमण-श्रमणियों का राजाज्ञाओं द्वारा प्रवेश तक निषिद्ध करवा दिया, उन क्षेत्रों में रहने वाले जैनधर्मावलम्बियों को विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा के श्रमण-श्रमणियों के दर्शन तक दुर्लभ हो गये । उन प्रदेशों के निवासी न केवल विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले सतत बिहारी श्रमणों को ही अपितु मूल श्रमण परम्परा के स्वरूप तक को भूल गये।
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