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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
की भूख ने धनिकवर्ग को चैत्यवासियों का ऐसा परम आज्ञाकारी उपासक बना दिया जो किसी भी क्षरंग किसी भी चैत्यवासी आचार्य के इंगितमात्र पर द्रव्य को पानी की तरह बहाने को समुद्यत रहता । चैत्यवासियों द्वारा धर्म के नाम पर प्रवर्तित आडम्बरपूर्ण और चहल-पहल तथा तड़क-भड़क भरे नित नये प्रयोजनों से मध्यम वर्ग के साथ-साथ जन-साधारण भी चैत्यवासियों की ओर आकर्षित हुआ । प्रभाव-अभियोगों से ग्रस्त वर्ग को इस प्रकार के धार्मिक आयोजनों के अवसर पर बांटी जाने वाली प्रभावनाएं लोगों को चैत्यवास की ओर आकर्षित करने में प्रमुख कारण रहीं ।
इस प्रकार समाज के प्रायः सभी वर्गों को चैत्यवासियों ने अपनी प्रोर आकर्षित करने में सफलता प्राप्त की । लोकप्रवाह अध्यात्म धरातल से हटकर बाह्याडम्बरपूर्ण द्रव्य पूजा के भौतिक धरातल की ओर उमड़ पड़ा । अंगुलियों पर गिने जाने योग्य लोगों को छोड़ शेष सभी लोग तप, त्याग, सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्य प्रादि गुणों से श्रोत-प्रोत जैनधर्म के अध्यात्मप्रधान विशुद्ध स्वरूप को भूल गये - विसर गये । वे चैत्यवासियों द्वारा प्रदर्शित जन- मन- रंजनकारी बाह्याडम्बरपूर्ण एवं परमाकर्षक द्रव्यार्चन, द्रव्यपूजा, द्रव्यस्तव अथवा द्रव्यधर्म को ही वास्तविक धर्म जानने और मानने लगे मानो शास्त्रों में प्रतिपादित धर्म के वास्तविक स्वरूप से और विशुद्ध श्रमरगाचार का पालन करने वाली मूल श्रमण परम्परा से जैसे उन लोगों का किसी प्रकार का कोई वास्ता ही नहीं रहा हो। इस प्रकार की स्थिति में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मूल श्रमण परम्परा के श्रमणों, श्रमणियों, श्रमणोपासकों एवं श्रमरणोपासिकाओं की संख्या सहज ही शनैः शनैः क्षीरण से क्षीणतर होते-होते अन्ततोगत्वा कितनी नगण्य रह गई होगी ।
विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाली मूल श्रमण परम्परा के लिये वह काल वास्तव में कितना बड़ा संक्रान्ति काल रहा होगा, इसका अनुमान चैत्यवासियों hat बाढ़ में बहने से किसी न किसी प्रकार बचे रहे छुट-पुट ऐतिहासिक उल्लेखों से लगाया जा सकता है । अपने श्रीमन्त उपासकों के अर्थबल एवं अन्यान्य साधनों के माध्यम से चैत्यवासियों ने राज्याश्रय प्राप्त कर भारत के अनेक भू-भागों पर अपनी परम्परा का एकाधिपत्य स्थापित करने एवं विशुद्ध श्रमणाचार का पालन तथा धर्म के वास्तविक स्वरूप का उपदेश करने वाली मूल श्रमण परम्परा का अस्तित्व तक मिटा डालने के उद्देश्य से समय-समय पर अनेक प्रकार के उपाय किये। उन उपायों में से सबसे अधिक प्रभावकारी और भयंकर उपाय उन्होंने यह किया कि येन-केन-प्रकारेण राजगुरु का गौरवपूर्ण पद प्राप्त कर राजाओं से इस प्रकार की राजाज्ञाएं प्रसारित करवा दीं कि उनके राज्य की सीमा में चैत्यवासी परम्परा के साधु-साध्वियों के अतिरिक्त अन्य किसी भी परम्परा के साधु एवं साध्वियां प्रवेश तक नहीं कर पायें । राजाओं से इस प्रकार की निषेधाज्ञाएं प्रसारित करवाये जाने
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