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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
[७६ ९(इस नियम के बन जाने के पश्चात चैत्यवासी परम्परा में शास्त्रीय मर्यादा नाम की कोई चीज नहीं बची)। चैत्यवासी साधु को इस बात की पूर्ण स्वतन्त्रता दे दी गई कि जिस को वह अच्छा समझे अथवा अच्छा कह दे वही कार्य चैत्यवासी परम्परा के अनुयायियों के लिए मुक्ति की ओर ले जाने वाला धर्मकार्य स्वीकार्य हो । शास्त्र में यदि उस कार्य के करने का निषेध है, उसे रसातल की पोर ले जाने वाला बताया गया है तो भी चैत्यवासी परम्परा का अनुयायी उस की ओर कोई ध्यान नहीं दे अपितु पूर्णत: उस शास्त्रवचन की अवहेलना करे।
(इस प्रकार चैत्यवासी परम्परा द्वारा बनाये गये नियमों को ध्यान में रखते हुए चैत्यवासी परम्परा द्वारा निर्धारित अथवा स्वीकृत धर्म के स्वरूप पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाए तो निर्विवाद रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थंकरों ने संसार के प्राणिमात्र के कल्याण के लिये जिस जिन धर्म का उपदेश दिया था, उस शाश्वत सनातन जैन धर्म से पूर्णतः विपरीत (पूर्णतः भिन्न कोई दूसरा ही) धर्म को चैत्यवासियों ने जैन धर्म के नाम पर प्रचलित किया था। चैत्यवासियों ने उस अपने कपोलकल्पित धर्म का नाम जैन धर्म तो अवश्य रखा परन्तु वस्तुतः उसे जैन धर्म नहीं कह कर जैनाभास धर्म कहना ही उचित हो सकता है।
यह तो निविवाद है कि आजीवन असिधारा पर चलने तुल्य अति दुष्कर एवं घोर दुस्साध्य विशुद्ध श्रमणाचार की परिपालना में अक्षम परीषहभीरु श्रमणों ने शिथिलाचार की शरण लेकर चैत्यवास परम्परा को जन्म दिया। शिथिलाचार. की पंकिल भूमि से इसका प्रादुर्भाव हया और शिथिलाचार की शिथिल नींव पर .. ही चैत्यवासी परम्परा का विशाल भवन खड़ा किया गया । A स्वयं द्वारा प्राचरित शिथिलाचार के औचित्य की जनमानस पर छाप जमाने के लिये चैत्यवासी परम्परा के संस्थापकों ने अपनी उन प्रशास्त्रीय मान्य. ताओं की पुष्टि में उपर्युक्त १० नियमों के अतिरिक्त निगम के नाम पर उपनिषदों के समान आगमों के प्रतिपक्षी अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया। भोले लोगों को सम. झाया गया कि ये विच्छिन्न हुए दृष्टिवाद के अंश हैं । उन ग्रन्थों में अपनी मान्यताओं के अशास्त्रीय और जैन सिद्धान्त के पर्णतः प्रतिकूल होते हुए भी उन्हें शास्त्रीय और जैन सिद्धान्तानुकूल सिद्ध करने का प्रयास किया गया। उन ग्रन्थों में नयी-नयी मान्यतानों का, चैत्य-निर्माण, प्रतिमा-निर्माण, चैत्य परिपाटी, प्रतिमानों में प्राण प्रतिष्ठा, प्रतिमा पूजा विधि, तीर्थ माहात्म्य, तीर्थयात्रा प्रादि-प्रादि के सम्बन्ध में अनेक नये-नये विधि-विधानों का विस्तार के साथ समावेश किया गया। प्रत्येक धार्मिक कृत्य के साथ अर्थ प्रधान बाह्य कर्मकाण्डों का पुट और बाह्याडम्बरा का संपुट १ चैत्यवासी परम्परा के साथ ही उनके वे अन्य भी प्राय: लुप्त हो गये प्रतीत होते हैं।
-सम्पादक
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