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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
बिलकुल विपरीत(चैत्यवासी परम्परा द्वारा अपने श्रमणों के लिये बनाये गये दश नियमों में से प्रथम नियम में ही चैत्यवासी साध को प्राधाकर्मी माहार ग्रहण करने की खुली छूट देते हुए कहा गया है कि प्राधाकर्मी पाहार ग्रहण करने में साम्प्रतयुगीन साधु को किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगता । इतना ही नहीं जिन चैत्यों में चैत्यवासी साध नियत निवास करते थे उन चैत्यों में भगवान को भोग लगाने के लिए उनके द्वारा पाकशालाएं चलाई जाती थीं। उन पाकशालाओं में से चैत्यवासी साधुओं को यथेप्सित भोजन सर्वदा लेते रहने का भी स्पष्ट निर्देश था।
शास्त्रों में श्रमणाचार का जो स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसमें साधु के लिए आवश्यक धर्मोपकरण के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु के रखने का पूर्णतः निषेध है। साधु वस्तुतः अपरिग्रह महावत का धारक होता है अतः उसे रुपया पैसा ग्रादि सभी प्रकार के परिग्रह से सदा जीवन-पर्यन्त दूर रहने का स्पष्ट निर्देश है। पर इसके विपरीत चैत्यवासी साधनों के लिए (चैत्यवासी परम्परा द्वारा बनाये गए नियमों में से नियम सं० ४ में चैत्यवासी साधु को धन रखने की छूट देते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है :
"साधु अपने पास धन का संग्रह करें । यद्यपि शास्त्रों में साधु के लिए धन रखने का निषेध है, तथापि साम्प्रतकालीन साधुओं के लिए धन रखना उचित और प्रावश्यक हो गया है।"
चैत्यवासियों ने सर्वज्ञप्रणीत आगमों की अपेक्षा भी अपनी कपोल-कल्पना को, अपनी दिमागी उपज को सर्वोपरि प्रामाणिक मानते हए चैत्यवासी साधुनों के लिए बनाये गये दस नियमों में से नौवें नियम में तो आगमों के विरुद्ध एक प्रकार से खुला विद्रोह ही घोषित कर दिया था। नियम सं० ६ में लिखा है :
"साधु इस प्रकार की क्रियानों का स्वयं आचरण करें तथा उन क्रियाओं के विधि-विधानों का उपदेश एवं प्रचार-प्रसार कर लोगों से उन क्रियाओं का पालन करवायें जो शनै: शनै: मोक्षमार्ग की ओर ले जाने वाली हैं। यदि इस प्रकार की क्रियाओं का, बातों का, विधि-विधानों का आगमों में उल्लेख नहीं है, तो आगमों की उपेक्षा करें । आगमों में यदि उन क्रियाओं का निषेध है तो पागम वचन का अनादर करके भी उन क्रियाओं को स्वयं करता रहे तथा दूसरों से उन क्रियाओं का आचरण करवाता रहे । क्योंकि भगवान् का सिद्धान्त अनेकान्तमय है । अमुक कार्य एकान्ततः करना ही चाहिये और अमुक कार्य एकान्तत: नहीं करना चाहिये, ऐसा कोई निर्देश जैन सिद्धान्त में नहीं है । अनेक प्रकरणीय कार्यों के करने और अनेक करने योग्य कार्यो के न करने का उल्लेख अागमों में अनेक स्थानों पर है।"
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