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________________ विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] [ ७७ श्री मामलो एटले लगरण बध्यो के निर्ग्रन्थ मार्ग विरल थई पड्यो, निर्ग्रन्थ प्रवचन पर तालां देवाया । अने कपोलकल्पित ग्रन्थो तेमनी जग्याए ऊभा करवा मां श्राव्या । एटलं ज नहीं परण विक्रम संवत् ८०२ नी साल मां वनराज चावड़ा ए ज्यारे अणहिलपुर पाटण वसाव्यं त्यारे तेमनां चैत्यवासी गुरु शीलगुणसूरिए तेनां पासे थी एवो रुक्को लखावी लीघो के आा राज नगर मां अमारा पक्षनां यतित्रो सिवाय वसतिवासि साधुस्रो दाखल थवा नहि देवा ।" ७ संघपट्टक की प्रस्तावना के उपर्युक्त उल्लेखों और पिछले अध्याय में प्रस्तुत किये गए महानिशीथ के उल्लेखों से यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि चैत्यवासियों ने भगवान महावीर द्वारा प्रदर्शित एवं प्रवर्तित धर्म के मूल स्वरूप तथा श्रमरंगाचार में आमूलचूल परिवर्तन कर किस प्रकार इसे कलुषित और विकृत कर दिया । चैत्यवासियों ने धर्म की प्रारणभूता आध्यात्मिकता, अहिंसा, अपरिग्रह, गुणपूजा, निरन्जन निराकार, शुद्ध, बुद्ध, विमुक्त और सत्य ं शिवं सुन्दरम् स्वरूप वाले आत्मदेव की आध्यात्मिक उपासना, भावपूजा को छोड़ छिटका कर, उसे पूर्णतः उपेक्षित और विस्मृत कर इनके स्थान पर भौतिकता, हिंसा, परिग्रह, द्रव्याचंन जड़पूजा को धर्म के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजमान कर के शास्त्रों में प्रतिपादित शुद्ध श्रमणाचार के स्वरूप को बुरी तरह कलंकित और कलुषित बना दिया । चैत्यवासियों द्वारा बनाये गए इन दश नियमों में ( महानिशीथ में वरिणत उनके शास्त्र विरुद्ध आचार विचार और संघपट्टक मूल एवं उसकी प्रस्तावना में वरिणत उनके अनाचारपूर्ण श्रमणाचार को एक बार देखने, पढ़ने मात्र से ही सुस्पष्ट दिखाई देते चैत्यवामी परम्परा द्वारा अपनी कपोल कल्पना से चैत्यवासी परम्परा के श्रमणों के लिये ग्राविष्कृत श्रमणाचार में ) वस्तुत: शास्त्रों में प्रतिपादित श्रमणाचार के गुणों में से किसी एक भी गुण को स्थान नहीं दिया गया। इसके विपरीत शास्त्रों में विशुद्ध श्रमणाचार के जितने दोप बताये गये हैं, उनमें से प्रायः सभी बड़े-बड़े दोषों को अपनी परम्परा श्रमणों के प्राचार में प्रमुख स्थान दे दिया गया। उदाहरण स्वरूप देखा जाए तो शास्त्रों में साधु द्वारा सर्वप्रथम अंगीकार किये जाने वाले प्रथम महात्रत अहिंसा में षड्जीवनिकाय के जीवों के प्रारम्भ समारम्भपूर्ण सभी प्रकार के कार्यों को जीवन पर्यन्त त्रिकरण एवं त्रियोग से न करने, न करवाने और न अनुमोदन करने का स्पष्ट विधान है, परन्तु चैत्यवासी परम्परा ने अपने साधुओं के लिए जो श्रमाचार अपनी कल्पनानुसार और शास्त्रों को एक ओर ताक में रखकर निर्धारित किया उसमें साधुओ के लिए यह अनिवार्य रखा गया कि वे चंत्यों में ही नियत वास करें । चत्यों का निर्माण करवाकर उन्हें अपनी सम्पत्ति के रूप में स्वीकार करें । चैत्यों के निर्माण जीर्णोद्धार आदि घोर प्रारम्भ-समारम्भपूर्ण कार्यों में मन, वचन, कर्म से सक्रिय भाग लेना चैत्यवासी साधु के लिए किसी प्रकार का दोष नहीं माना गया। इसके विपरीत इन सब कार्यों को करवाने की चैत्यवासी साधुत्रों को खुली छूट दी गयी । शास्त्रों में साधु के लिए प्रधाकर्मी प्रहार ग्रहण करने का एकान्ततः निषेध है, इसके www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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