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________________ ७६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ पांचवां पाररूप अवसर्पिणी काल एटले पड़तो काल तो हमेशा प्राव्या करे पण अगाउ कांई आ जैनधर्म मां प्रावी धांधल ऊभी थई नथी पण हमणानो पड़तो काल साधारण रीते पड़ता काल नां करतां कइंक जूदी तरेह नो होवा थी ते हंड एटले अतिशय भंडो होवा थी तेने हंडावसर्पिणी काल कहेवा मां आव्यो छे । आवो काल अनन्ती अवसर्पिणिों बीततांज आवे छे । तेवो पा चालू काल थयो छे । ते साथे वीर प्रभु नां निर्वाण वखते बे हजार वर्ष नो भस्मग्रह बेठेलो ते साथे मल्यो, तेमज तेनी साथे असंयतीपूजा रूप दसवों अछेरो पोतानुं जोर बताववा लाग्यो । एम चारे संयोगो भेगा थवा थी आ चैत्यवास रूप कुमार्ग जैन धर्म नां नामें चौमेर फैलावा मांड्यो । गुरुनो स्वार्थी थई योग्यायोग्य नो विचार पड़ते मूकी जो हाथ मां आव्यो तेने मंडी ने पोता नां वाड़ा बधारवा मांड्या अने छेवटे बेचाता चेला लई विना वैराग्ये तेमने पोता नां वारस तरीके नीमवा मांड्या। हवे कहेवत छै के यथा गुरुस्तथा शिष्यो, यथा राजा तथा प्रजा। ते प्रमाणे गुरुओ शिथिल थतां तेमनां ताबा नीचेना यतियो तेमना करतां पण वघं शिथिल थया। तेत्रो दवा, दारू, डो, धागा बगैर करी ने लोको ने वश मां राखवा लाग्या, वेपार करवा लाग्या तथा खेतर-वाड़ी सुद्धा करवा तत्पर थया । तेम छतां तेश्रो पोता ने महावीर प्रभुना वारस चेलामो तरीके अोलखावी पोतां नुं भान साचववा मांड्या। प्राणीमेर तेमनां रागी श्रावको प्रांधला बनी तेमना पंजा मां सपड़ाई तेस्रो जे कांई ऊंघं चतं समझावे ते बधु बगैर विचारे अने वगर तकरारे हां जी हां जी करी स्वीकारवा लाग्या । कारण के लोको नो मुख्य भाग हमेशा भोलो रहे । ते थी तेवा भोलाप्रो ने, कपटी वेषधारी चैत्यवासिमो अनेक बाहनां ऊभा करी ने ठगवा मांड्या। आवी गड़बड़ थोड़ाज वखत मां बह बधी पड़ी एटले देवदिगणि नां पछी ५५ वर्ष स्वर्गवासी थयेला हरिभद्रसूरिए महानिशीथनो उद्धार करतां चैत्यवास नो सारी रीते तिरस्कार को छ । सदरह हरिभद्रसूरि चैत्यवासियों नां मंडल मां दीक्षित थया हता छतां परम विद्वान् होवा थी तेमणे तेमनां पक्षनं खूब खंडन कर्यु छे।। ' प्रस्तावनाकार ने यह उल्लेख कतिपय ग्रन्थकारों के भ्रान्तिपूर्ण उल्लेख के माधार पर कर दिया है । वस्तुत: वीर नि० संवत् १०५५ में स्वर्गस्थ हुए हारिल सूरि अपर नाम हरिभद्र ने महानिशीथ का उद्धार नहीं किया था। इसका उद्धार याकिनी महत्तरासूनु, भवविरह हरिभद्रसूरि ने किया था, जो कि वीर नि०सं० १२५५ में विद्यमान थे। विस्तार के लिए देखिए प्रस्तुत ग्रन्थ का ही २६वं युगप्रधान हारिलसूरि का विवरण । महानिशीथ के द्वितीय अध्ययन की पुष्पिका एवं प्रभावक चरित्र हरिभद्रसूरिचरितम का श्लोक सं० २१६ । --सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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