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विकृतियों के विकास की पृष्ठ भूमि ]
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विधि-विधानों एवं अनेक प्रकार की अशास्त्रीय मान्यताओं का प्रचार-प्रसार कर जैन धर्म के मूल स्वरूप में ही आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया ।
प्रभु महावीर द्वारा तीर्थ प्रवर्तन के समय से लेकर आर्य देवर्द्धिगरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने तक जैन धर्म और श्रमरणाचार का जो रूप अक्षुण्ण रहा था, उसमें चैत्यवासियों द्वारा कैसा आमूल चूल परिवर्तन किया गया और धर्म एवं श्रमणाचार के स्वरूप में किस किस प्रकार की विकृतियां उत्पन्न की गई, इस सम्बन्ध में संघ पट्टक की प्रस्तावना में बड़ा अच्छा प्रकाश डाला गया है । उस प्रस्तावना के एतद्विषयक कतिपय उद्धरण यहां यथावत् प्रस्तुत किये जा रहे हैं । संघपट्टक की प्रस्तावना में लिखा है :
"आ रीते भगवान् थी आठ सौ पचास वर्ष चैत्यवास स्थपायो तो परण तेनं, खरेखरू' जोर वीर प्रभु एक हजार वर्ष बीत्यां केडे बघवा मांड्यं । श्रा अरसा मां चैत्यवास ने सिद्ध करवा माटे आगम नां प्रतिपक्ष तरीके निगम नां नाम तले उपनिषदो नां ग्रन्थो गुप्त रीते रचवा मां श्राव्या भने तेस्रो दृष्टिवाद नामना बारमां अंगनां त्रुटेला ककड़ा छे एम लोको ने समभाववा मां प्राव्यं । ए ग्रन्थों मां एवं स्थापना करवां मां व्यं, छे के आज काल नां साधुओए चैत्य मां वास करवो व्याजबी छे तेमज तेमरणे पुस्तकादि नां जरूरी काम मां खप लागे माटे यथायोग्य पैसा टका परण संघरवा जोइए । इत्यादि अनेक शिथिलाचार नी तेश्रो ए हिमायत करवा मांडी ने जो थोड़ा घरणां वसतिवासी मुनिओ रहिया हता तेमनी अनेक रीते अवगरणना करवा मांडी ।
देवद्धगरिण पर्यन्त साधुनो नो मुख्य गच्छ एकज हतो, छतां कारण-परत्वे तेने जूदा जूदा नाम थी प्रोलखवा मां श्रावेल छे । जेम के सरुप्रात मां तेना मूल स्थापक सुधर्म गणधर ना नाम पर थी ते सौधर्म गच्छ कहेवातो हतो। त्या केड़े चौदमा पाटे समंतभद्र सूरिए वनवास स्वीकार्या एटले ते वनवासी गच्छ कहेवायो | त्यार केड़ े कोटि मन्त्र जाप ना कारण ते कोटिक गच्छ कहेवायो । छतां तेमा अनेक शाखात्रों ने कुलो थया परण ते परस्पर अविरोधी हता । केम के कोई ने परण पोतानां गच्छ नो या शाखा नो या कुल नो अहंकार अथवा ममत्वभाव न हतो । परण चैत्यवास शुरु थतां मरणे स्वगच्छ नां वखारण अने पर गच्छ नीं हेलना करवा मांडी एटले प्ररसपरस विरोधी गच्छों उभा थया ।
गच्छ शब्द नो मूल अर्थ ए छे के गच्छ अथवा गरण - एटले साधुश्रनुं टोलं I माटे गच्छ शब्द कई खराब नथी, परण गच्छ माटे अहंकार ममत्व के कदाग्रह करवो तेज खराब छे । छतां चैत्यवास मां तेवो कदाग्रह वधवा मांड्यो । श्रऊपर थी ते मां कुसंप बध्यो, एक्य त्र ट्यं । हवे एक गच्छ मां थी चौरासी गच्छ थई पड्या । तेश्रो एकमेकने तोडवा मंड्या अने प्रा रीते समाधिमय धर्म नां स्थाने कलह कंकसमय अधर्म नां बीज रोपायां ।
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