SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ हुए कण्ठों से तरंगित हुई सुमधुर स्वर लहरियों से विमुग्ध हुए लोग उत्तरोत्तर बड़ी संख्या में इन मन्दिरों में जाने लगे । शनैः शनैः वाद्य यन्त्रों की समधुर धुन के साथ गाये जाने वाले भजनों और कीर्तनों के माध्यम से मन्दिरों में भक्तिरस की सरिताएं प्रवाहित होने लगीं । गायक भी और श्रोता भी क्षण भर के लिए लौकिक जंजालों को भूल कर भक्ति के रस में डूबने-झूमने लगे । यही सबसे बड़ा, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सबसे प्रबल काररण था, जिससे लोकप्रवाह मन्दिरों की ओर हठात् उमड़ पड़ा । इससे लोगों को कुछ समय के लिए शान्ति के साथ-साथ मन्दिरों की आवश्यकता का और शनैः शनैः मन्दिरों- मूर्तियों के प्रौचित्य का भी अनुभव होने लगा ५ भव्य मूर्तियों से सुशोभित मन्दिरों के दर्शन से भक्त जन अपनी चक्षु इन्द्रियों को, सुगन्धित धूपों की एवं भीनी-भीनी सुगन्ध वाले विविध वर्गों के सुमनों की सुगन्ध से अपनी घ्राणेन्द्रिय को, भक्तिरस से ओतप्रोत स्वरलहरियों से अपनी श्रवणेन्द्रिय को और भक्ति सुधा से अपने मानस को तृप्त करने के लिए इस प्रकार के भव्य आयोजनों में अधिकाधिक संख्या में सम्मिलित होने लगे । विशाल संघों के साथ तीर्थयात्राओं में भी नये-नये ग्रामों, नगरों के साथसाथ लता - गुल्मों और विशाल वृक्षराजियों से प्राच्छादित वनों, पर्वत-श्र णियों तथा कल-कल निनाद करते हुए झरनों, सरिताओं आदि के प्राकृतिक दृश्यों को देखने का प्रलोभन, आकर्षण भी लोगों को स्थान-स्थान पर प्रायोजित तीर्थयात्राओं में सम्मिलित होने का कारण बना । [ इस प्रकार नये सिरे से नयी उमंगों और उत्साह के साथ प्रारम्भ किये गये इन नवीन विधि-विधानों एवं प्रयोजनों से चैत्यवास बड़ा ही लोकप्रिय होने लगा । उन चैत्यवासियों के अन्ध श्रद्धालुओं ने उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता देकर चैत्यवासी संघ को सुदृढ़, सक्षम र सबल बनाया। लोग उत्तरोत्तर अधिकाधिक संख्या में चैत्यवासियों के अनुयायी और परम भक्त बनने लगे । अपने भक्तों की संख्या अपने संघ की सबलता और अपने संघ द्वारा प्रचलित किये गये नित्य नये प्रयोजनों और विधि-विधानों की लोकप्रियता से प्रोत्साहित हो चैत्यवासियों ने चैत्यवासी श्रमरणों के जीवन को सुसम्पन्न गृहस्थों के जीवन से भी अधिक सुखोपभोगपूर्ण, सरल, निश्चिन्त और सभी भांति सुसाध्य बनाने के उद्देश्य से ऐसे दश नियम भी बनाये जो शास्त्रों में वर्णित श्रमणाचार से पूर्णत: विपरीत थे । उन दश नियमों का पिछले अध्याय में विस्तार के साथ उल्लेख किया जा चुका है, अतः यहां उनके सम्बन्ध में पुनः प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं । (चैत्यवासियों ने उन दश नियमों का पालन प्रत्येक चैत्यवासी साधु के लिए ग्रनिवार्य बनाकर और अपनी कपोल कल्पनानुसार बनाये गये नये-नये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy