________________
विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि J
(थूभों) पर पाषाणमूर्तियों की एवं पायाग-पट्टों की स्थापना की गई ।' तदनन्तर मन्दिरों का निर्माण प्रतिष्ठा-महोत्सव, तीर्थयात्राओं आदि बहुजनाकर्षक लोकरंजनकारी आयोजनों का प्रचलन किया गया। ऐसे आयोजनों के अवसरों पर प्रभावनाओं का वितरण भी अन्य तीथिकों की देखादेखी प्रारम्भ किया गया ।
इन आयोजनों, उत्सवों और प्रभावनाओं के माध्यम से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में पर्याप्त सफलता मिली।
इससे उत्साहित हो उन वेषधारी श्रमणों ने भगवान् महावीर के परम्परागत मूल धर्म संघ से भिन्न अपना एक पृथक् 'धर्मसंघ' बनाने का निश्चय किया।
वीर नि० सं० ८५० में चैत्यवासी संघ की स्थापना की गई। चैत्यवासी. संघ का श्रमण-श्रमणी वर्ग चैत्यवासी नाम से पहचाना जाने लगा। चैत्यवासी साधुओं ने अप्रतिहत विहार का परित्याग कर चैत्यों में ही नियत निवास प्रारम्भ कर दिया। उन चैत्यवासी साधुनों ने अपने भक्तजनों से द्रव्य लेकर अपने-अपने मन्दिर बनवाये । उन मन्दिरों में ही भगवान् को भोग लगाने के नाम पर बड़ी-बड़ी पाकशालाए बनवा कर उन पाकशालाभों से प्राघाकर्मी आहार लेना प्रारम्भ कर दिया । इस प्रकार धीरे-धीरे वीर नि० सं० ८५० में खुले रूप में नियमित रूप से चैत्यों में रहना और आधाकर्मी आहार लेना प्रारम्भ हो गया।
- जैसा कि पहले बताया जा चुका है, वीर नि० सं० १००० तक पूर्वधर महान् प्राचार्यों की विद्यमानता में तो श्रमणाचार की परिपालना में शिथिल बने उन श्रमणों द्वारा संस्थापित नवीन मान्यताओं वाला चैत्यवासी संघ, अनुयायियों की संख्या, प्रचार-प्रसार एवं क्षमता की दृष्टि से भगवान महावीर के अध्यात्मपरायण मूल धर्मसंघ की तुलना में गौण ही बना रहा। वह मूल धर्मसंघ के पूर्वधर प्राचार्यों के वर्चस्व के कारण देशव्यापी प्रचार-प्रसार नहीं पा सका। किन्तु अन्तिम पूर्वधर आर्य देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गवास के अनन्तर इस नवीन मान्यता वाले चैत्यवासी धर्मसंघ की शक्ति बड़े प्रबल वेग से बढ़ने लगी। अन्य तीथिकों की देखादेखी और उनके प्रचार-प्रसार को देखकर उन्होंने भी मूर्तियों की प्रतिष्ठापना मन्दिरों के निर्माण, मन्दिरों में वाद्यवृन्दों के साथ संगीत, भजन एवं कीर्तन, उद्यापन, रथयात्रा, संघयात्रा और पंचकल्याणक महोत्सव आदि प्रायोजन प्रारम्भ किये । मन्दिरों में विविध वाद्ययन्त्रों की तान और ताल के साथ सधे
मथुरा के कंकाली टीले से निकला कनिष्क सं० ७९ (वीर नि० सं० ६८४) का प्राकृत लेख सं. ५६ :-प्र. १ सं. ७० ६-वर्ष ४ दि. २० एतस्यां पूर्वायां कोट्टियेगणे वइरायां शाखायां""२ को प्रय वृघहस्ति प्ररहतो णन्दि (मा) वर्तस प्रतिमं निवर्तयति ब""भार्यये श्राविकाये (दिनाये) दानं प्रतिमा बौद्ध थुपे देवनिर्मिते प्र.
-जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ. ४२-४३ माणि. दि. ग्रन्थ. समिति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org