SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 193 ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ शिक्षित चार प्रभात इन घोर अमंगलकारी योगों के कारण बुरी तरह बदली हुई सामाजिक एवं प्राकृतिक परिस्थितियों में प्रभाव प्रादि अनेक कठिनाइयों के कारण जिन श्रमणों ने शिथिलाचार की शरण ली, उन्हें उस समय के लोगों द्वारा तत्काल लोकनिन्दा का भाजन होना पड़ा। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि जैन आगमों में विशुद्ध श्रमणाचार का विशद् एवं यथावत् रूप विद्यमान था एवं उस पर चलने वाला श्रमण श्रमणी समूह भी उस समय तक बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान था । शिथिलाचार की ओर झुके परीषह भीरु श्रमरणों ने लोकदृष्टि में गिरती हुई अपनी प्रतिष्ठा को बचाने एवं अपने मिथ्या अहं की पुष्टि के लिये अनेक नये-नये मार्ग खोजने प्रारम्भ किये । अन्य संप्रदायों के बढ़ते आडम्बरों और आकर्षणों के बीच श्रमणाचार की शास्त्र कथित परम्परा का साधारण साधकों के लिए पालन करना अति कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव समझकर तत्कालीन प्राचार्यों ने समयानुसार सुविधाजनक मार्ग निकालने का विचार कर चैत्यवास और भक्तिभाव की छाया में नया मार्ग ढूंढ निकाला । उन्होंने भोले-भाले अन्ध-श्रद्धालु लोगों को जादू टोना, यन्त्र, मन्त्र आदि थोथे चमत्कारों एवं भौतिक प्रलोभनों में फंसा कर उन्हें अपने भक्त बनाना प्रारम्भ किया । वे कहने लगे कि कलिकाल की बदली हुई परिस्थितियों में आगमविहित श्रमणाचार का पालन नितान्त असम्भव है । केवल कठोर तपश्चरण, परीषहसहन, परिग्रह परित्याग, भिक्षाटन, अप्रतिहत विहार आदि ही मोक्ष के साधन हों, ऐसी बात नहीं है । इन अति दुष्कर कार्यों के अतिरिक्त चैत्यनिर्माण, चैत्यवन्दन पूजन, अर्चन, तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा महोत्सव, प्रभावना वितरण आदि-आदि अनेक जनमनरंजनकारी सरल, सुकर कार्यों से भी, मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । जब लोगों ने पहली बार यह सुना तो धीरे-धीरे लोग शिथिलाचारी श्रमणों की ओर आकर्षित होने लगे । वस्तुतः कष्टभीरुता और स्खलना सदा से ही मानवस्वभाव की बहुत बड़ी दुर्बलता रही है । केवल परम विरक्त, प्रबुद्ध एवं सच्चे मुमुक्षु ही पग-पग पर कष्टों से भरे कण्टकाकीर्ण मुक्तिपथ के लक्ष्यवेधीपारगामी पथिक बन सकते हैं । अबोध जनसाधारण तो कष्टपूर्ण पथ से सदा कतराता और आडम्बरपूर्ण सहज सुगम मार्ग का ही अनुगमन करता आया है । I शिथिलाचार की ओर उन्मुख हुए उन श्रमरणों ने इस प्रकार अपनी गिरती हुई प्रतिष्ठा को कुछ सीमा तक बचाये रखने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने धर्म के नाम पर अनेक ऐसे आडम्बरपूर्ण एवं आकर्षक नित नये विधि-विधानों का ' प्रचलन किया, जिनका आगमों में कहीं कोई विधान तो दूर, उल्लेख तक नहीं है । सर्वप्रथम किसी स्थान विशेष पर तीर्थंकरों की निषद्याओं अथवा तीर्थकरों के निर्वारणानन्तर उनके पार्थिव शरीर के अन्तिम संस्कार-स्थलों पर निर्मित स्तूपों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy