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________________ विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] .. [७१ पवेइयं"-- सूत्रकृतांग के इस सूत्र के अनुसार श्रमणधर्म का जीवनपर्यन्त शास्त्राज्ञानुसार विशुद्ध रूप से पालन करना, तलवार की तीखी धार पर नंगे पांव अथवा जाज्वल्यमान अंगारों पर चलने के समान अति दुष्कर एवं परम दुस्साध्य है। (यह वस्तुतः अनुपम साहसी सिंह तुल्य पराक्रम वाले नरसिंहों का ही काम है, न कि कापुरुषों का।) जिस अलौकिक धैर्य, शौर्य और साहस के साथ श्रमण भगवान् महावीर ने अपने साधनाकाल में मुमुक्षुओं के लिए प्रतीकात्मक विशुद्ध एवं परम दुस्साध्य श्रमणाचार का पालन किया, उसे पागम में अनुपमेय कहा है। कैवल्य की प्राप्ति के अनन्तर उन प्रभु महावीर द्वारा स्थापित चतुर्विध तीर्थ के प्रमुख अंग श्रमरणश्रमणी वर्ग ने भी अद्भुत् साहस के साथ प्रभु के पदचिन्हों पर चलते हुए विशुद्ध श्रमणाचार का पालन किया। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् भी उनका धर्मसंघ शताब्दियों तक सतत् जागरूक रहकर शास्त्राज्ञानुसार विशुद्ध श्रमरणाचार का ही पालन करता रहा। _ ज्यों-ज्यों समय बीतता गया और अपकर्षोन्मुख अवसर्पिणी काल के प्रभाव से शारीरिक संहनन, संस्थान, शक्ति, साहस, शौर्य, सहिष्णुता, क्षमा, मार्दव, आर्जव, बुद्धिबल, अनासक्ति, आस्तिक्य और अनहंकार आदि उत्कृष्ट मानवीय गुणों का अनुक्रम से उत्तरोत्तर ह्रास होता गया, त्यों-त्यों धीरे-धीरे इस परम पुनीत श्रमण परम्परा में भी काल प्रभाव से विकारों का प्रवेश प्रारम्भ हो गया। यों तो प्रत्येक अवसर्पिणीकाल अपकर्षोन्मुख-- ह्वासोन्मुख होता है। उसमें सभी पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रूप, रस, स्पर्श में, बल, वीर्य, पौरुष, पराक्रम में, शारीरिक संहनन, संस्थान आदि आदि गुणों में और संक्षेप में कहा जाय तो जितनी भी अच्छाइयां हैं, उनमें अनुक्रमश: अनन्तगुना ह्रास होता जाता है। परन्तु प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल वस्तुतः हुण्डावसर्पिणी काल है। हुण्डावसर्पिणी काल का अर्थ है भोंड़े से भोंडा, भद्दे से भद्दा निकृष्ट अवपिणी काल । ऐसा हुण्डावसर्पिणी काल अर्थात् निकृष्ट हासोन्मख काल अनन्त अवसपिरिणयों के बीत जाने के पश्चात् आता है । वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अवसर्पिणी और हुण्डावसपिणी काल के प्रभाव के साथ-साथ असंयती-पूजा नाम के आश्चर्य ने भी अपना प्रभाव प्रकट करना प्रारम्भ किया। इन तीनों अशुभ योगों के साथ ही साथ भगवान महावीर के निर्वाण के समय जो २००० वर्ष तक अपना प्रभाव प्रकट करने वाला भस्मग्रह लगा था, उसका भी प्रभाव बढ़ने लगा। इस प्रकार अवसर्पिणीकाल, हुण्डावसर्पिणीकाल, असंयती-पूजा नामक आश्चर्य और भस्मग्रह-- इन चार घोर अमंगलकारी योगों के प्रभाव के परिणामस्वरूप सतत् प्रवाहमान जैन परम्परा को ऐसे दिन देखने पड़े जैसे अनन्त प्रतीत काल की साधारण अवसपिरिणयों में कभी नहीं देखने पड़े थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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