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________________ ७. ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ द्रव्य परम्परागों के प्राचार्यों ने राजसत्ता के सहारे अनेक क्षेत्रों में विशुद्ध परम्परा के श्रमण श्रमणियों का प्रवेश तक निषिद्ध करवा दिया। विशुद्ध श्रमण परम्परा का नाम तक लोग भूल गये । इन द्रव्य परम्पराओं द्वारा लोक प्रसिद्ध किया गया धर्म संघ ही विशुद्ध धर्मसंघ के रूप में जाना माना जाने लगा और द्रव्य परम्परा के प्रवर्तक इन द्रव्य साधुनों का स्वरूप ही लोक में विशुद्ध श्रमण परम्परा के श्रमरणों के रूप में रूढ़ हो गया। इतना सब कुछ होते हए भी विशुद्ध श्रमण परम्परा का स्रोत एक क्षीणतोया नदी के रूप में प्रवाहित होता ही रहा। कभी अवरुद्ध नहीं हआ। इसके साथ ही साथ इन द्रव्य परम्पराओं के अन्दर से भी समय समय पर अनेक प्रात्मार्थी श्रमणों ने शिथिलाचार के विरुद्ध विद्रोह कर क्रियोद्धार करने के अनेक बार अनेक रूपों में प्रयास किये। उनके इन प्रयासों पर यथाक्रम यथावसर प्रकाश डाला जायेगा। इन द्रव्य परम्पराओं के चरमोत्कर्ष काल में अनेक प्राचार्यों द्वारा भगवान् महावीर के धर्म संघ के मूल आध्यात्मिक स्वरूप और इन द्रव्य परम्पराओं द्वारा लोक में रूढ कर दिये गये विकृत श्रमरण स्वरूप के बीच सामंजस्य स्थापित करने का भी प्रयास किया गया, इसकी साक्षी महानिशीथ सूत्र देता है । द्रव्य परम्परा और भाव परम्परा के संगम का जो उल्लेख महानिशीथ में उपलब्ध होता है उस पर आगे यथा स्थान विशद् रूपेरण प्रकाश डालने का प्रयास किया जावेगा। कतिपय प्राचीन उल्लेखों से यह अनुमान भी किया जाता है कि वीर निर्वाण सम्वत् १००० मे वीर निर्वाण सम्वत् १७०० की अवधि के बीच क्षीण सलिला सरिता के रूप में अवशिष्ट रही भाव श्रमण परम्परा कभी कभी उत्ताल तरंगों सी तरंगित भी हई किन्तु उन द्रव्य परम्पराओं के प्रबल वर्चस्व के परिणाम स्वरूप उसका उभरा हुआ वेग पुनः शान्त हो गया। इस प्रकार वीर निर्वाण सम्वत् १००० से १७०० तक के जैन धर्म के इतिहास पर ये द्रव्य परम्पराए ही छाई रहीं । अतः इन परम्पराओं का इतिहास यथाशक्य यथोपलब्ध रूप में दिये बिना जैन धर्म का इतिहास अपूर्ण ही रहेगा। इस दृष्टि से विशुद्ध श्रमण परम्परा का क्रमिक इतिहास प्रारम्भ करने से पूर्व इन द्रव्य परम्पराओं के उद्भव और उत्कर्ष का इतिहास यथाशक्य यथोपलब्ध रूप में दिया जा रहा है। चैत्यवासी परम्परा का उद्भव, उत्कर्ष और एकाधिपत्य जैसा कि पहले बताया जा चुका है-"दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियट्टगामीणं" .. प्राचारांग सूत्र के इस वचन और "अणुपुव्वेण महाघोरं कासवेरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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