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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
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परिवर्तन के साथ-साथ जैन धर्म के आत्मा तुल्य मूलभूत आध्यात्मिक स्वरूप में भी आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया । चैत्यवास, मठवास, मन्दिरवास एवं अध्यात्मपरक भावप्रर्चना के विपरीत द्रव्य अर्चना के सभी उपकरण, सभी साधन, समस्त विधि-विधान वस्तुतः उत्सर्ग मार्ग पर छा जाने वाले अपवाद मार्ग की ही उपज हैं ।
इस प्रकार अपवाद मार्ग के आधार पर अवलम्बित इन चैत्यवासी आदि परम्पराओं का बीजारोपण वीर निर्वारण की सातवीं शताब्दी के उषःकाल में ही हो चुका था किन्तु देवद्विक्षमाश्रमण के स्वर्गारोहरण के पूर्व वे न तो लोकप्रिय ही हो सकीं और न प्रसिद्धि को ही प्राप्त कर सकीं । भगवान् महावीर के धर्मसंघ की अध्यात्ममूलक भावपरम्परा के वर्चस्व के समक्ष पूर्वघर काल में ये द्रव्य परम्पराएं नगण्य रूप में गौरण ही बनी रहीं । पूर्वज्ञान के धनी प्राचार्यो के त्याग, तप, तेज और ज्ञान के प्रकाश के समक्ष ये द्रव्य परम्पराएं मात्र ज्योति रिंगण - खद्योत अथवा उडूंगरण तुल्य कहीं कहीं सीमित क्षेत्रों में ही येन केन प्रकारेण अपना अस्तित्व बनाये रहीं किन्तु देवगिरिण श्रमाश्रमरण के दिवंगत होने के अनन्तर पूर्वज्ञान के धनी प्राचार्य के प्रभाव में चैत्यवासी परम्परा जैसी द्रव्य परम्परानों का प्रभाव बढ़ने लगा । लोगों पर बढ़ते हुए अपने प्रभाव से प्रोत्साहित होकर इन द्रव्य परम्पराम्रों के आचार्यों ने यह अनुभव किया कि उत्तरोत्तर निरन्तर द्रुत से द्रुततर गति से परिवर्तित होती हुई शारीरिक, मानसिक, आर्थिक सामाजिक, बौद्धिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों के वातावरण में जन मानस को परोक्ष प्राध्यात्मिक उपलब्धियों की अपेक्षा तत्काल जन मन रंजन कारी प्रयोजनों, ऐहिक सुखोपभोग प्रदायी चमत्कारों से यथेप्सित रूप से मोड़ दिया जा सकता है । अपने इस अनुभव के आधार पर अपने समय में बदलते हुए बौद्धिक एवं धार्मिक धरातल में लोक प्रवाह को अपने धर्म संघ की ओर आकर्षित करने के लिए उन द्रव्य परम्पराओं के आचार्यों ने लोक रंजन हेतु प्राडम्बरपूर्ण धार्मिक प्रायोजनों अनुष्ठानों, उत्सवों आदि का और तत्काल लौकिक लाभ पहुंचाने हेतु यन्त्र मन्त्र तन्त्र जप जाप अनुष्ठान आदि के माध्यम से जन मानस पर एकाधिपत्य एकाधिकार स्थापित करने का प्रबल वेग से प्रयास प्रारम्भ कर दिया । उन्हें अपने इस प्रयास में आशातीत सफलता प्राप्त हुई । श्राडम्बरपूर्ण धार्मिक अनुष्ठानप्रायोजनों और चमत्कारों के बल पर उन द्रव्य परम्पराओं के प्राचार्यों ने न केवल जनमानस को अपितु राजन्यवर्ग को भी अपनी ओर आकर्षित करने में अपने श्रमण आदर्शों को भुला परम्परा से प्रवाहित होते प्रा रहे अपने धर्मसंघ के मूल स्वरूप में ही उसके विधि-विधान में ही पूर्णतः परिवर्तन कर दिया । इसका परिणाम यह हुआ कि तीर्थं प्रवर्तन काल से चली आ रही जैन धर्म की विशुद्ध श्रमण परम्परा का वर्चस्व समाप्त हो गया और वह क्षीण से क्षीरणतर होते होते नितान्त एक नगण्य गौरण परम्परा के रूप में ही कहीं-कहीं अवशिष्ट रह गई । चारों ओर इन द्रव्य परम्पराओं का वर्चस्व हो गया । इन
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