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________________ ६८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ कर्तव्य है तो अपवाद मार्ग मजबूरी अथवा परवश अवस्था में किया गया एक ऐसा कार्य जो कर्त्तव्य की परिधि से कोसों दूर है | पूर्वघरकाल की समाप्ति के अनन्तर अर्थात् देवद्ध क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल के प्राचार्यों द्वारा निर्मित टीकाओं, चूणियों भाष्यों आदि जैन वांग्मय में अपवाद मार्ग का बाहुल्य है । इस प्रकार के वांग्मय में विहित अपवाद मार्ग न तो ग्राह्य ही है और न मान्य ही । क्योंकि जिस प्रकार चतुर्दश पूर्वधर अथवा दश पूर्वघर द्वारा रचित आगम ही मान्य एवं प्रमाणित होता है, उसी प्रकार अपवाद मार्ग भी वे ही मान्य हो सकते हैं जो चतुर्दश पूर्वधर अथवा दश पूर्वधर द्वारा किये गये हों । आगमों में उत्सर्ग मार्ग के सम्बन्ध में एक स्पष्ट उल्लेख है जत्थिथि कर फरिसं, अंतरिय कारणं वि उप्पन्ने । अरहा विकरेज्ज सयं, तं गच्छं मूलगुरण मुक्कं ॥ अर्थात् - यदि स्वयं कोई तीर्थंकर किसी विशिष्ट कारण के उपस्थित होने पर भी स्त्री का स्पर्श करे तो वह गच्छ ( श्रमरणसंघ) मूल गुरण से रहित है । इस उत्सर्ग मार्ग में कमल प्रभाचार्य ( चैत्यवासियों द्वारा दिया गया अपर नाम सावद्याचार्य) को : "एगंते मिच्छत्थं, जिरणारण आरणा अरोगता । " इस गाथार्द्ध के माध्यम से अपवाद मार्ग का आरोपण करने के परिणामस्वरूप किस प्रकार असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तक नरक तिर्यंच आदि योनियों में भटकते हुए दारुण दुःख भोगने पड़े,' इस ओर यदि वीर निर्वाण की प्रथम सहस्राब्दी से उत्तरवर्ती आचार्यों ने ध्यान दिया होता तो संभवतः वे अपनीअपनी सुविधानुसार अपनी-अपनी द्रव्य परम्परात्रों की शास्त्रीय मान्यताओं से नितान्त भिन्न स्वकल्पित मान्यताओं के अनुसार अपवाद मार्ग का विधान नहीं करते । वस्तुस्थिति यह है कि देवद्धगरिण के स्वर्गारोहण के अनन्तर भस्मग्रह के प्रभाव अथवा हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से अथवा परीषहभीरुतावशात् अथवा पूजा -- मान- -प्रतिष्ठा - यशकीर्ति की कामना अथवा जैनधर्म के ह्रास को रोकने तथा जैन धर्म के प्रचार-प्रसार उत्कर्ष की कामना से अपवाद मार्ग का अवलम्बन ले जैन धर्म संघ में अनेक प्रकार की द्रव्य परम्पराओं का प्रादुर्भाव हुआ । उन द्रव्य परम्पराम्रों के प्राचार्यों एवं श्रमरण-श्रमणियों ने महानदियों के जलप्रवाह की भांति अपवादों का प्रवाह प्रवाहित कर श्रमणाचार के मूल स्वरूप में यथेप्सित १. महानिशीथ, अप्रकाशित - सावद्याचार्य का आख्यान | ( प्रति - प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, लालभवन, जयपुर में उपलब्ध ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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