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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
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लिये उन प्राचार्यों ने समय की पुकार को ध्यान में रखते हुए अपने उच्च श्रमणादर्शों का बलिदान तक किया। संघ तथा जैन धर्म को जीवित रखने के लिए उन प्राचार्यों ने अनेक प्रसंगों पर ऐसे कार्य भी किये जो जैन श्रमरण मात्र के लिए परम्परा से ही पूर्णत: त्याज्य माने गये हैं ।
समष्टि के हित के लिए, धर्म पर अथवा धर्मसंघ पर आये संकटों की घड़ियों में श्रमणों के लिए अपवाद मार्ग के अनेक उदाहरण जैन वांग्मय में उपलब्ध होते हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि धर्मसंघ पर आये अन्यायपूर्ण संकटों के क्षणों
श्रष्ठों ने समय-समय पर धर्मसंघ की घोर संकट से रक्षा के लिये अपवाद रूप में श्रमरणाचार में निषिद्ध आचरण किया । किन्तु संकट के टल जाने पर उन महाश्रमणों ने अपने उस श्रमरणधर्म से विपरीत अपवादस्वरूप सदोष प्राचरण के लिए प्रायश्चित कर उस दोष अथवा दुष्कृत का शोधन किया। अति पुरातन काल में लब्धिधारी मुनि विष्णुकुमार ने लब्धि का चमत्कार प्रकट कर श्रमरणसंघ की रक्षा की। महासती सरस्वती पर प्राये घोर संकट से उनकी रक्षा के लिए आर्य कालक (वीर नि० सं० ३३५ से ३७६) ने शक्तिशाली इतर राज्यसत्ता की सहायता से प्रत्याचारी गर्द भिल्ल को राज्यच्युत किया । अपने उस अपवाद स्वरूप दोषपूर्ण प्राचरण के लिए उन्होंने प्रायश्चित ग्रहण कर आत्मशुद्धि की । किन्तु वीर निर्वाण की प्रथम सहस्राब्दी के अनन्तर इससे नितान्त भिन्न स्थिति रही ।
वीर निर्वारण की प्रथम सहस्राब्दी से उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने धर्मसंघ पर संकट के बादल मण्डराने पर समय-समय पर अपवाद मार्ग का अवलम्बन किया किन्तु अपने इस प्राचरण के लिए प्रायश्चित लेने के स्थान पर उन प्राचार्यों ने उस अपवाद मार्ग को अपनी श्रमण परम्परा और अपने श्रमरण जीवन का प्रावश्यक स्थायी अंग बनाकर तदनुकूल श्राचरण को श्रमरण जीवन के लिए कल्पनीय ही मान लिया। इसका दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि अपवाद मार्ग पग-पग पर अधिकांश श्रमण परम्पराओं के श्रमरण जीवन का एक प्रकार से अनिवार्य अंग वन गया और शनै: शनै: टीकाओं, चूणियों भाष्यों आदि में स्थान पाते पाते इस प्रकार का अपवाद मार्ग किसी विरले ही श्रमण संघ को छोड़ शेष सभी श्रमण संघों एवं श्रमणों के जीवन पर ऐसा छा गया कि वह उनकी दैनिक श्रमरणचर्या का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रावश्यक कर्त्तव्य बन गया। इस प्रकार देवद्धि क्षमाश्रमरण के पश्चात् गौण बनी विशुद्ध श्रमण परम्परा को छोड़ शेष सभी श्रमण परम्परात्रों में अपवाद मार्ग ने उत्सर्ग मार्ग का स्थान ग्रहरण कर लिया और इस जैनधर्म के मूल स्वरूप के साथसाथ मूल विशुद्ध श्रमरणाचार भी शास्त्रीय विधानों से नितान्त भिन्न स्वरूप में प्रायः सर्वत्र प्रचलित हो गया । तीर्थंकरों ने जैनधर्म में उत्सर्ग और अपवाद दोनों प्रकार के मार्गों को स्थान दिया है । किन्तु अपवाद मार्ग को विशिष्ट प्रकार की अपरिहार्य परिस्थितियों में ही अपनाने की छूट दी है । उत्सर्ग मार्ग एक पुनीत
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