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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
ऐतिहासिक घटनाचक्र के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर प्रायः सभी द्रव्य परम्पराओं के उदभव और उत्कर्ष की पृष्ठभूमि में उपरि वरिणत छह कारणों में से कोई न कोई कारण अवश्य रहा है, इस बात की सुस्पष्ट रूप से पुष्टि होती है ।
जब तक बड़े-बड़े सम्राट, राजा-महाराजा जैन धर्म के अनुयायी रहे तब तक जैनधर्म खूब फला-फूला, यह एक संयोग की बात होने के साथ-साथ एक ऐतिहासिक तथ्य भी है।
अन्तिम मौर्य सम्राट् वृहद्रथ को मार कर पाटलीपुत्र के सिंहासन पर बैठे पुष्यमित्र शुंग ने जिस समय बौद्धों के साथ-साथ जैनों पर भी अत्याचार करने प्रारम्भ किये तो उस समय कलिंग चक्रवर्ती महामेघवाहन भिक्खुराय खारवेल ने पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर जैनधर्मानुयायियों की रक्षा की। जैन धर्मावलम्बी चोल, चेर, पाण्ड्य आदि दक्षिण के राजवंशों के शैव हो जाने और उनके द्वारा जैन साधुनों के सामूहिक संहार और बलात् करवाये गये जैनों के सामूहिक धर्मपरिवर्तन से जब जैनधर्म का दक्षिण में अस्तित्व तक संकट में पड़ गया तो कलभ्रों ने चोल, चेर और पाण्ड्य इन तीनों सशक्त दक्षिणी राजसत्ताओं को परास्त कर जैन धर्मावलम्बियों की और जैन धर्मसंघ की रक्षा की। - जैनधर्म के प्रभाव को बढ़ाने के लिए आर्य वज्र, आर्य समित, ब्रह्मदीपकसिंह
आदि प्राचार्यों ने समय-समय पर अपने विद्याबल से राजाओं, राजसत्ताओं एवं प्रजाजनों को प्रभावित कर जनमानस पर जैनधर्म का वर्चस्व स्थापित किया। प्राचीन काल में सिद्धसेन दिवाकर ने राजसत्ता को प्रभावित कर जैन धर्म के वर्चस्व में उल्लेखनीय अभिवृद्धि की।।
इन सब ऐतिहासिक तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए वीर निर्वाण की प्रथम सहस्राब्दी से उत्तरवर्ती जैन आचार्यों ने भी अपने विद्याबल से राजाओं को प्रभावित कर उनमें से कतिपय को जैनधर्मावलम्बी, कतिपय को जैनधर्म का संरक्षक और कतिपय को जैनधर्म के प्रति उदारतापूर्ण सौहार्द्र रखने वाला बनाया। केवल इतना ही नहीं अपितु संक्रान्तिकाल में जैनधर्म की रक्षा के लिए दूरदर्शी जैनाचार्यों ने जैनधर्म के पक्षधर राजवंश की अनिवार्य आवश्यकता को अनुभव करते हुए होयसल (पोयसल) राजवंश, गंगराजवंश आदि जैन धर्मावलम्बी राजवंशों की स्थापना तक की। उस संक्रान्तिकाल में उन प्राचार्यों का एकमात्र लक्ष्य यही था कि जैनराजवंशों की स्थापना के साथ-साथ उन्हें सभी दृष्टियों से शक्तिशाली राजसत्ता के रूप में प्रकट कर के अथवा जैनेतर राजसत्ताओं को जैनधर्म संघ का संरक्षक बनाकर जैनों एवं जैनसंघ की चहुंमुखी श्रीवृद्धि की जाय। अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के १ स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनिज्म, बाइ एम. एस. रामास्वामी प्रायंगर, चैप्टर III. २ देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ के "होयसल राजवंश" एवं "गंगराजवंश" नामक अध्याय ।
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