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उत्तरकालीन धर्मसंघ में विकृतियों के प्रादुर्भाव और विकास की पृष्ठभूमि
वीर नि० सं० १००० से उत्तरवर्ती काल में, भगवान् महावीर के अध्यात्मपरक धर्मसंघ में भौतिकतापरक जो द्रव्य परम्पराएं जैन धर्मावलम्बियों के मानस पर, जनमानस पर उत्तरोत्तर छाती ही गईं, उन द्रव्य परम्पराओं के प्रादुर्भाव के... पीछे जैसा कि साधारणतया समझा अथवा कहा जाता है, एक मात्र शिथिलाचार अथवा मान-सम्मान, यश-कीर्ति प्राप्ति की आकांक्षा ही मूल कारण व प्रमुख कारण रहा है, ऐसा तो एकान्ततः नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ऐतिहासिक घटनाचक्र के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर इनके अतिरिक्त और भी अनेक कारण प्रकाश में आते हैं । वे हैं :
(१) धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु प्राचार्य सुहस्ती और मौर्य सम्राट् सम्प्रति का अनुसरण कर राजानों, मन्त्रियों आदि से प्राचार्यों एवं श्रमरणों की सम्पर्क साधना |
( २ ) अपने धर्म संघ को जीवित रखने अथवा एक प्रभावकारी धर्मसंघ बनाये रखने के उद्देश्य से चमत्कार प्रदर्शन द्वारा, जनमानस, धनिक वर्ग और प्रमुखतः राजन्यवर्ग को अपनी ओर आकर्षित करना, अपना अनुयायी बनाना ।
(३) दुष्कालों के भीषण परिणामों से अपने प्राणों की रक्षा के साथ-साथ भोजन की सुगम सरल स्थायी एवं स्वायत्तशासी व्यवस्था करना । (४) अन्य धर्मों के बढ़ते हुए प्रभाव से जैन धर्म की रक्षार्थ अन्य धर्मों के धार्मिक अनुष्ठानों को आत्मसात् कर उनका अनुसरण करना ।
(५) अनुष्ठानों, आयोजनों आदि के माध्यम से अधिकाधिक लोगों को अपने धर्मसंघ की ओर आकर्षित करने के लिये आडम्बरपूर्ण जनमनरंजनकारी नित नये धार्मिक अनुष्ठानों, आयोजनों, उत्सवों, महोत्सवों आदि का आविष्कार एवं प्रचार-प्रसार ।
(६) अन्य धर्मावलम्बियों के धार्मिक विद्वेष से अपने धर्मसंघ और स्वधर्मी बन्धुनों की रक्षार्थं राज्याश्रय प्राप्ति हेतु धर्माचार्यों द्वारा अनुष्ठान, यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, कल्प आदि का प्रयोग एवं राजनीति तथा सत्ता के संचालन में सक्रिय योगदान आदि-श्रादि ।
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