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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
धर्म एवं श्रमणाचार का जो अपरिवर्तनीय शाश्वत सनातन स्वरूप जन-जन को बताया है, उसका शास्त्रों के आधार पर यथावत् भली-भांति दिग्दर्शन कराया जा चुका है।
तीर्थेश्वर भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि के आधार पर उनके गणधरों द्वारा गुम्फित शास्त्रों में धर्म का और श्रमणाचार का जो शाश्वत सनातन स्वरूप प्रतिपादित किया गया था, उस मूल स्वरूप में चैत्यवासियों ने किस प्रकार और कैसा परिवर्तन किया, यह भी चैत्यवासी परम्परा द्वारा प्रचालित, और प्रसारित दश नियमों के उल्लेख के रूप में विस्तार के साथ बता दिया गया है।
शास्त्रों में प्रतिपादित, धर्म और श्रमणाचार के उपरिवरिणत स्वरूप के परिप्रेक्ष्य में चैत्यवासियों द्वारा प्रचलित किये गये धर्म एवं श्रमणाचार के स्वरूप को विहंगम दृष्टि से देखने से विदित हो जाता है कि इन दोनों में उसी प्रकार का अन्तर है, जिस प्रकार का कि आकाश और पाताल में। ऐसा कह दें तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। दोनों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने पर तो पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि चैत्यवासियों द्वारा परिकल्पित यह धर्म और श्रमणाचार का स्वरूप वस्तुतः जैनधर्म के मूल सिद्धान्तों से बिल्कुल प्रतिकूल और जैनतत्वाभास मात्र ही है । चैत्यवासियों द्वारा किये गये इन दश नियमों के प्रचार-प्रसार को वस्तुतः सर्वज्ञप्रणीत आगमों के विरुद्ध एक सुनियोजित विद्रोह कहा जा सकता है अपनी कपोलकल्पनाओं पर आधारित इन दश नियमों से चैत्यवासियों ने सर्वज्ञ-प्रणीत धर्म और श्रमणाचार के मूल में परिवर्तन कर धर्म और श्रमणाचार के मूल स्वरूप को ही विकृत कर दिया । इन नियमों में से एक भी नियम ऐसा नहीं, जो शास्त्रसम्मत हो । ये सब के सब नियम शास्त्रों से पूर्णत: विपरीत हैं । प्रत्येक नियम में शास्त्रों के प्रति घोर अनादर, अवज्ञा
और उपेक्षा कूट-कूट कर भरी हुई है। इन नियमों में जैनधर्म के प्राणभूत महान् सिद्धान्त अहिंसा, आध्यात्मिकता और अपरिग्रह का तो बड़ी ही निर्दयतापूर्वक गला घोंट दिया गया है। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग प्रभु की शाश्वत सत्य अवितथ वाणी से ग्रथित आगमग्रन्थों में जो जैन धर्म का, श्रमण-श्रमणियों और श्रावक श्राविकाओं का अध्यात्म परक परम पुनीत निर्मल स्वरूप चित्रित किया गया है, उस पर इन अशास्त्रीय दश नियमों के दश बड़े-बड़े कुत्सित काले धब्बे लगाकर चैत्यवासियों ने धर्म और आचार के उस निर्मल स्वरूप को मलिन ही नहीं पूर्णतः विकृत कर दिया। शास्त्रों में वरिणत जैन धर्म के स्वरूप के संदर्भ में चैत्यवासियों द्वारा अपनी कपोल कल्पना से रचित इन दश नियमों के तुलनात्मक विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि चैत्यवासियों ने रत्नत्रयी जटित धर्म रूपी स्वर्ण घट में से अहिंसा आध्यात्मिकता और अपरिग्रह रूपी अमृत को धलि में उडेल कर उस स्वर्णघट में घोर प्रारम्भ-समारम्भपूर्ण हिंसा और बाह्याडम्बर का हलाहल विष भर दिया है, जो आत्म-विनाशकारी होने के परिणामस्वरूप प्राणियों को अनन्त काल तक संसार में भ्रमण कराने वाला भी है ।
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