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________________ वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ] (६) साधु इस प्रकार की क्रियाओं का स्वयं आचरण करें तथा ऐसे विधि-विधानों का उपदेश एवं प्रचार-प्रसार कर लोगों से उन क्रियाओं का पालन करवाए जो शनैः शनै: मोक्षमार्ग की ओर ले जाने वाली हैं । यदि इस प्रकार की क्रियाओं का, (विधि-विधानों का) आगमों में उल्लेख नहीं है, तो आगमों की उपेक्षा करें । आगमों में यदि उन क्रियाओं का निषेध है तो आगम-वचन का अनादर करके भी उन क्रियाओं को स्वयं करता रहे तथा दूसरों से उन क्रियाओं का आचरण करवाता रहे । क्योंकि भगवान् का सिद्धान्त अनेकान्त है। अमुक कार्य एकान्तत: करना ही चाहिये और अमुक कार्य एकान्तत: नहीं करना चाहिये, ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश जैन सिद्धान्त में नहीं है। अनेक प्रकरणीय कार्यों के करने और अनेक करने योग्य कार्यों के नहीं करने का उल्लेख भी आगमों में अनेक स्थानों पर है। जिनेश्वर ने न तो किसी कार्य के करने की आज्ञा दी है और न किसी कार्य के करने का एकान्त निषेध ही किया है । अतः इस काल के साधुओं को आगम में नहीं आई हई ऐसी बातों का आचरण एवं उपदेश करना चाहिये जो सुखपूर्वक की जा सके और मोक्ष की ओर बढ़ा सकें।' (१०) उपर्य क्त इन नियमों का पालन न करने वाले अन्य सब साधुओं के प्रति चैत्यवासी साधुओं को अनादर एवं विरोधपूर्ण द्वषदृष्टि रखनी चाहिये । क्योंकि चैत्यों में न रह कर पर घर, वसति, उद्यान आदि में रहने वाले साधु केवल अपने आपको ही धर्मनिष्ठ, गुरगसम्पन्न मानते तथा अन्य सभी साधनों को दोषी बताते हुए अद्ययुगीन संघ को न मानकर, उसकी सभी प्रकार की प्रवृत्तियों का दूर से ही त्याग करने वाले हैं। ये पर-घर अथवा वसति-वासी साधु लोग व्यवहार से नितान्त अनभिज्ञ हैं अतः ये संघ से बाहर (बहिष्कृत) हैं। इन सब करणों से ये लोग मूलतः नष्ट कर देने योग्य हैं- इस प्रकार का द्वष इनके प्रति रखना ही समुचित और हितकर है। प्राकाश और पाताल का अन्तर प्राणिमात्र के अनन्य परममित्र, विश्वबन्धु, अगाध करुणासिन्धु-सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकरों ने किसी भी काल, किसी भी समय में कदापि नहीं बदलने वाला कि दिग्मोहमिता किमंधबधिरा: कि योगचूर्णीकृताः, कि देवोपहता: किमंगठगिता: किं वा ग्रहावेशिता: । कृत्वा मूनि पदं श्रु तस्य यदमी दृष्टोरु दोषा अपि, व्यावृत्ति कुपथाज्जड़ा न दधते सूयंति चतत् कृते ।। १७ ॥ -संघपट्टक सम्यग्मार्गपुषः प्रशान्तवपुषः प्रीतोल्लसच्चक्षुषः, श्रामद्धिमुपेयुषः स्मयजुषः कंदर्पकक्षप्लुषः । सिद्धान्ताध्वनि तस्थुषः शमजुषः सत्पूज्यतां जग्मुषः, सत्साधून विदुषः खला: कृतदुषः क्षम्यन्ति नोद्यद्रुष: ।। ३१ ॥ --संघपट्टक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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