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वीर निर्वाण से देवद्ध काल तक ]
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(५) चैत्यवासी साधु गृहस्थों को उपदेश - गुरुमन्त्र आदि देकर अपने पीढ़ी, पीढ़ी के श्रावक बनाये । क्योंकि इस काल के उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के विज्ञ मुनियों को अपने श्रावक बनाकर अपनी परम्परा में स्थिर रखना उचित एवं आवश्यक है । पूर्ववर्ती काल वस्तुतः बड़ा ही भव्य काल था । उस समय के साधु भी अतिशय शक्तिसम्पन्न महापुरुष थे । उस समय कुतीर्थिकों की संख्या भी अति स्वल्प थी । जनसाधारण का मानस भी प्रायः सरल और उदार था, अतः जैनेतर भी बड़े सम्मान के साथ जैन साधुनों को भिक्षा आदि प्रदान करते थे । साम्प्रतकालीन जनमानस कुतीर्थिकों के बाहुल्य एवं प्राबल्य के कारण कलुषित हो गया है । ऐसी दशा में यदि साधुनों ने अपनी परम्परा के श्रावक बनाकर उन्हें अपनी परम्परा में सदा के लिये पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थिर और सुदृढ़ नहीं रखा तो साधु के लिये, भिक्षा ग्रादि के अभाव में अपना जीवन बनाये रखना भी कठिन हो जायगा । इससे अन्ततोगत्वा तीर्थ- व्युच्छित्ति और प्रवचननाश जैसी स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है । अतः साधुओं को चाहिए कि वे अधिकाधिक संख्या में अपने श्रावक बनाकर उन्हें अपनी परम्परा में सुस्थिर रखें ।
श्रागम में भी कहा है :--
"जा जस्स ठिई जा जस्स संठिई, पुव्वपुरिसकया मेरा । मोतं इक्कमंतो, अगंत संसारिश्रो होई ||
अर्थात् जिसकी जो स्थिति है, पूर्व पुरुषों द्वारा जिसको जिस जगह बने रहने की मर्यादा बांध दी गई है, वह उसी में रहे, उस मर्यादा का अतिक्रमण करने वाला व्यक्ति ग्रनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमरण करता है ।
जो श्रावक एक बार अंगीकार किये हुए गुरु का त्याग कर दूसरे गुरु का याजक बनता है तो वह अनन्त काल तक संसार में भटकता है - यह इस शास्त्रवचन का अभिप्राय है । इस शास्त्र वचन से भी हमारे इस कथन की पुष्टि होती है। कि साधु को अपने श्रावक बनाने चाहिए।'
(६) साधु जिनेन्द्र भगवान् के मन्दिरों को अपनी सम्पत्ति के रूप में स्वीकार करें । काल-दोप से इस समय के गृहस्थों में- श्रावकों में चैत्यों की रक्षा, व्यवस्था आदि के प्रति कोई रुचि नहीं है और न उन्हें चैत्यों की सार-सम्हाल करने के लिए ही कोई अवकाश मिलता है। ऐसी स्थिति में यदि साधु चैत्यों को अपने
1. (क) स्वीकारोऽर्थं गृहस्थ,
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(ख) सर्वारम्भपरिग्रहं त्वति महा सावद्यमाचक्षते ।
॥१०॥
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-संघपट्टक
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