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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
कुछ क्षणों के लिए स्त्रियों का चैत्यों में जिन बिम्बों एवं प्रतिमाओं के दर्शनार्थ आना होता है और दर्शन कर तत्काल वे अपने घरों को लौट जाती हैं ।
इन सब कारणों से चैत्यत्रासी साधु वसतिवास का सदा खण्डन करते
रहें '
(४) साधु अपने पास धन का संग्रह करें । यद्यपि शास्त्रों में साधु के लिये धन संग्रह निषिद्ध है, तथापि साम्प्रतकालीन साधुओं के लिए धन रखना उचित और आवश्यक हो गया है। क्योंकि धन के विना ग्लान अवस्था में, शत्रुनों के आक्रमण अथवा दुष्काल प्रादि के समय में औषधि, पथ्य, भोजन आदि की प्राप्ति न होने पर शरीर के नष्ट होने जैसी स्थिति उपस्थित हो सकती है । कालदोष से धर्मभावना रहित हुए श्रावकों से तो इस प्रकार प्रहार, प्रौषध - भेषज आदि की पेक्षा ही नहीं की जा सकती । अतः धन ग्रहण कर साधुनों को एक अक्षय निधि एकत्रित करनी चाहिए। साधुनों के पास धन होगा तो दुर्बल आर्थिक दशा को प्राप्त किसी श्रावक की सहायता कर उसे प्रार्थिक दृष्टि से सम्पन्न एवं सबल बनाया जा सकता है । इस प्रकार सम्पन्न बने श्रावक चैत्यों का निर्माण करवा कर उनकी पूजा आदि की व्यवस्था और तीर्थ प्रभावना के कार्यों से जिनशासन को समुन्नत करेंगे। उनकी प्रार्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी तो वे आगमों का लेखन करवा कर प्रवचन की रक्षा भी कर सकेंगे । आधुनिक युग के मुनि यदि अपने पास द्रव्य नहीं रखेंगे तो तीर्थोच्छेद और प्रवचनविच्छेद की स्थिति उत्पन्न हो सकती है अतः आधुनिक युग के साधुओं को अपने पास द्रव्य रखना चाहिये । २
१ (क.)
'वसत्यक्षमा,
२
(ख) साक्षाज्जिनं गंगाधरैश्च निषेवितोक्ता, निःसंगताग्रिमपदं मुनिपुंगवानाम् । शय्यातरोक्तिमनगारपदं च जानन्, विद्वेष्टि कः परगृहे वसति सकर्णः ||८|| चित्रसर्गापवादे यदिह शिवपुरी दूतभूते निशीथे, प्रागुक्त्वा भूरिमेदा गृहिगृहवसती: कारणेपोद्य पश्चात्, स्त्रीसंसक्तादिमुक्तेप्यभिहित यतनाकारिणां संयतानां
(क)
।।५।।
सर्वत्रगारिधानि न्ययमिन तु मतः क्वापि चैत्ये निवास ||||
'स्वीकारोऽर्थ
।।५।।
(ख) प्रव्रज्याप्रतिपंथिनं ननुं धनस्वीकारप्राहुजिना:, सर्वारम्भपरिग्रहं त्वतिमहा सावद्यमाचक्षते ।
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