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________________ वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ] [ ५६ सुन्दर स्वरूप को देख कर विरहिणी युवतियां उन पर मुग्ध हो उन्हें पथभ्रष्ट कर सकती हैं, तथा गृहस्थावस्था में भोगे हुए भोगों के स्मरण हो जाने से साधुओं के ब्रह्मचर्य व्रत के भंग होने का प्रसंग उपस्थित हो सकता है। पर जिनमन्दिरों में निवास करने पर इन सब आशंकाओं की कोई सम्भावना ही नहीं रहती । अतः इस प्रकार की स्थिति में साधनों को वसतिवास-परग्रहवास एवं उद्यानवास का परित्याग कर चैत्यों में ही नियत-निवास करना चाहिये।' (३) वसति में, परगह में अथवा उद्यान में निवास करने अथवा ठहरने वाले साधुओं का पूरी तरह विरोध कर चैत्यवासी साधु खुलकर इस प्रकार का प्रचार-प्रसार करें कि साधु को वसति में कभी निवास नहीं करना चाहिये । वसतिवास का खण्डन यह कह कर किया जाय : न वि किंचि अरणन्नायं, पडिसिद्ध वा वि जिणवरिंदेहि। मुत्तुं मेहुणभावं, न सो विणा रागदोसेहिं ॥ थीवज्जियं वियागइ इत्थीणं जत्थ काण रूवारिण। सद्दा य न सुव्वंति, ता विय तेसि न पेच्छेहि ।। बंभवयस्स अगुत्ती, लज्जानासो य पीइवुड्ढी य । साधु तवोवणवासो, निवारणं तित्थपरिहाणी ।। श्रृणु हृदयरहस्यं यत्प्रशस्यं 'मुनीनां' न खलु न खलु योषित्सन्निधि: संविधेया । हरति हि हरिणाक्षी क्षिप्रमक्षिक्षुरप्र प्रहतशमतनुत्रं चित्तमप्युन्नतानाम् ।। इन सब बिन्दुओं को दृष्टिगत रखते हुए स्त्रीसंसक्त परगृहवास साधुओं के लिए नितान्त हानिकर और चैत्यों में साधुओं का नियतनिवास साधुओं के लिए परम हितकर है। चैत्यों में नियत निवास करने वाले साधनों के जीवन में स्त्रीसम्पर्क और उपयुक्त किसी प्रकार के दोषों के प्रसंग की कोई सम्भावना ही नहीं रहती। .: (क) ........ ...................."जिनगृहे वासो .......||शा (ख) गायद्गन्धर्व नृत्यत् पणरमणिरणद्वेणुगुजन्मृदंग प्रेखत्पुष्पस्रगुद्यन्मृगमदलसदुल्लोचचंचज्जनौघे । देवद्रव्योपभोगध्र वमठपतिताशातनाभ्यस्त्रसंतः, संतः सद्भक्तियोग्य न खलु जिनगृहेऽर्हन्मतज्ञा वसन्ति ।।७।। - संघपट्टकसटीक (जिनवल्लभसरि) (प्रकाशन :- श्रावक जेठालाल दलसुख अहमदाबाद ई. सन् १६०७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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