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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
को लेने में कोई दोष नहीं है । रूक्ष भोजन देने वाले तो मिल सकते हैं पर उम से अाजकल के साधु अपने शरीर को बनाये नहीं रख सकते । इसलिये कोई श्रद्धालु श्रावक साधु के लिये घृत एवं पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करता है तो धर्म के साधन रूप शरीर को सशक्त बनाये रखने के लिये इस प्रकार का औद्देशिक आहार अथवा घत आदि लेने में कोई दोष नहीं। इस प्रकार का औद्देशिक आहार देने से श्रावक को भी पुण्य होगा।'
(२) साधु को सदा के लिये जिनमन्दिर में ही नियत वास करना चाहिये । आगमों में साधनों के लिये उद्यानवास का विधान है पर अब लोगों के अावागमन मे रहित तथा गुप्त द्वार वाले उस प्रकार के उद्यान नष्ट हो गये हैं। जो हैं, उनमें ग्राम्र मंजरी के रमास्वादन से उन्मत्त हुई कोकिलों के कामोद्दीपक 'कुहू' 'कुहू' के सुमधुर स्वरालाप में तथा प्रफुल्लित मालती पुष्पों की सुमधुर मादक सुगन्ध से मुनियों के मन विचलित हो सकते हैं। उन उद्यानों में कामी-कामिनियों के युगलों के केलिक्रीड़ार्थ आते रहने के कारण स्त्री-संसर्ग की आशंका रहती है। जिनमन्दिर वस्तुतः जिनेन्द्र प्रभु की मूर्तियों के लिये बनाये जाते हैं, अत: साधुओं को जिनमन्दिर में रहने से न तो प्राधाकर्मी दोप ही लगेगा और न स्त्री-संसर्ग की आशंका ही रहेगी। वसति मे दूरस्थ शून्य उद्यानों में ठहरने से चोर, लुटेरों द्वारा धर्मोपकरणों के चुराये जाने की भी आशंका बनी रहती है। साधुनों के रहने योग्य उद्यानों के नष्ट हो जाने के कारण ही आर्य रक्षित ने वीर नि० सं० ६२० में सुविहित साधुओं के बल, बद्धि, मेधा आदि की हानि देख कर साधनों के लिये चैत्यवास कल्पनीय बताया। चैत्यवास निरवद्य है, गीतार्थ महापुरुषों द्वारा सेवित है, अतः चैत्य में नियत निवास साधुओं के लिये किसी प्रकार दोषपूर्ण नहीं । हरिभद्रसूरि जैसे महान ग्रन्थकार ने भी चैत्यवास का प्रतिपादन किया है। समरादित्य कथा में उल्लेख है कि जिनमन्दिर के प्रतिश्रय में रही हई एक साध्वी ने केवलज्ञान प्राप्त किया । चैत्यों में साधुओं के नियतनिवास से चैत्यों के नष्ट होने
और तज्जन्य तीर्थोच्छेद का भय भी नहीं रहता । वसतिवास---अर्थात् पर गृहनिवास में तो प्राधाकर्मी दोष और स्त्रीसंसर्ग के कारण ब्रह्मचर्य के भंग होने की प्रबल आशंका भी बनी रहती है । परग्रहवास की दशा में साधुओं के अमृततुल्य सुमधुर स्वाध्याय घोष को सुन कर और ब्रह्मचर्य के तेजपुंज से दैदीप्यमान अतीव
' (क) अत्रौदेशिक भोजन........................... । श्लोक सं० १ (ख) षट्कायानुपमृद्य नियमृषीनाधाय यत्साधितम्,
शास्त्रेषु प्रतिषिध्यते यदसकृन्निस्त्रिशंताघायितम् । गौमांसाद्य पमं यदाहुरथ यमुक्त्वा यतित्यिधः, स्तत्को नाम जिघित्सतीह सघृणः संघादि भक्ति विदन् ।।६।।
---संघपट्टक (जिनवल्लभसूरि)
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