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________________ यापनीय साहित्य : ८१ किसी अन्य को यापनीय मानने का आधार इस चर्चा के सन्दर्भ में यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि किसी कृति को यापनीय मानने का आधार क्या होना चाहिए ?-डॉ० कुसुम पटोरिया ने श्वेताम्बर अथवा दिगम्बर परम्परा की प्रचलित मान्यताओं से मतभेद रखने वाले सभी ग्रन्थों को यापनीय परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया है। यद्यपि उन्होंने कसायपाहुड और षट्खण्डागम जैसे यापनीय ग्रन्थ छोड़ भी दिये हैं किन्तु मेरी दृष्टि में मात्र यही आधार उचित नहीं है क्योंकि श्वेताम्बर और अचेलक-दोनों ही परम्पराओं के अवान्तर संघों, गणों या गच्छों में भी न केवल आचार के सामान्य प्रश्नों को लेकर, अपितु ज्ञानमीमांसा, तत्त्व-मीमांसा, कर्म-सिद्धान्त और सृष्टि-मीमांसा की सूक्ष्म विवेचनाओं के सम्बन्ध में अनेक अवान्तर मतभेद देखे जाते हैं, मात्र यही नहीं, एक ही ग्रन्थ में दो भिन्न-भिन्न मान्यताओं के निर्देश भी प्राप्त होते हैं। अतः मात्र इसी आधार पर कि उस ग्रन्थ की मान्यताएं प्रचलित श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा से भिन्न हैं, उसे यापनोय नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में भी अनेक अवान्तर मतभेद रहे हैं, उदाहरण के रूप में सिद्धसेन और जिनभद्र केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमभाव या योगपद्य को लेकर मतभेद रखते हैं । षट्खण्डागम की धवला टीका में भी दिगम्बर परम्परा के ही अनेक अवान्तर मतभेदों की विस्तृत चर्चा है। कसायपाहडपत्त और उसकी चणि में भी ऐसे मतभेद देखे जाते हैं। अतः प्रचलित मान्यताओं से मतभेद मात्र किसी ग्रन्थ के यापनीय होने का आधार नहीं है। मेरी दृष्टि में किसी ग्रन्थ को यापनीय मानने के लिए निम्न बातों पर विचार करना आवश्यक है (१) क्या उस ग्रन्थ में अचेलता पर बल देते हुए भी स्त्रो-मुक्ति और केवली-भुक्ति के निर्देश उपलब्ध हैं ? (२) क्या वह ग्रन्थ स्त्री के छेदोपस्थापनोय चारित्र अर्थात् महावतारोपण का समर्थन करता है ? (३) क्या उस ग्रन्थ में गृहस्थ अथवा अन्य परम्परा के भिक्षु आदि के मुक्तिगमन का उल्लेख है ? (४) क्या उस ग्रन्थ में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अंगादि आगमों के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है और अपने मत के समर्थन में उनके उद्धरण दिये गये हैं ? ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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