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________________ ८० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय मेरे उपर्युक्त लेखन का तात्पर्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है किन्तु मूलग्रन्थों के साथ ऐसी छेड़-छाड़ करने के लिए श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय - सभी समानरूप से दोषी हैं । जहाँ श्वेताम्बरों ने अपने ही पूर्व अविभक्त परम्परा के आगमों से ऐसी छेड़-छाड़ की, वहाँ यापनीयों ने श्वेताम्बर मान्य आगमों और आगमिक व्याख्याओं से और दिगम्बरों ने यापनीय परम्परा के ग्रन्थों से ऐसी ही छेड़-छाड़ की । निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार की छेड़-छाड़ प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक होती रही है । कोई भी परम्परा इस संदर्भ में पूर्ण निर्दोष नहीं कही जा सकती । अतः किसी भी परम्परा का अध्ययन करते समय यह आवश्यक है कि हम उन प्रक्षिप्त अथवा परिवर्धित अंशों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें, क्योंकि इस छेड़ छाड़ में कहीं कुछ ऐसा अवश्य रह जाता है, जिससे यथार्थता को समझा जा सकता है । परिवर्धनों और परिवर्तनों के बावजूद भी श्वेताम्बरों आगमों की एक विशेषता है, वह यह कि वे सब बातें भी जिनका उनकी परम्परा से स्पष्ट विरोध है, उनमें यथावत् रूप में सुरक्षित हैं । यही कारण है कि श्वेताम्बर आगम जैन धर्म के प्राचीन स्वरूप की जानकारी देने में आज भी पूर्णतया सक्षम है । आवश्यकता है निष्पक्ष भाव से उनके अध्ययन की। क्योंकि उनमें बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है, जिसमें जैनधर्म के विकास और उसमें आये परिवर्तनों को समझा जा सकता है । यही बात किसी सीमा तक यापनीय और दिगम्बर ग्रन्थों के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है, यद्यपि श्वेताम्बर साहित्य की अपेक्षा वह अल्प ही है । प्रक्षेप और परिष्कार के बाद भी समग्र जैन साहित्य में बहुत कुछ ऐसा है, जो सत्य को प्रस्तुत करता है, किन्तु शर्त यही है कि उसका अध्ययन ऐतिहासिक और सम्प्रदायनिरपेक्ष दृष्टि से हो; तभी हम सत्य को समझ सकेंगे । इस सन्दर्भ में पं० नाथूराम जो प्रेमी, प्रो० एन०एन० उपाध्ये, डा० हीरालाल जी जैन, पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी, पं० दलसुखभाई मालवाणिया ने जो तटस्थ दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था वह आज भी हमारा मार्गदर्शन बन सकता है । अग्रिम पृष्टों में हम उन्हीं विद्वानों की तटस्थ दृष्टि के आधार पर यापनीय साहित्य का मूल्यांकन करने का प्रयत्न करेंगे । (स) पं० कैलाशचन्द शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ, परिशिष्ट 'संजद' पाठ के सम्बन्ध में पं० आचार्य शान्तिसागर जी का अन्तिम अभिमत पृ० ५७४-५७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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