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यापनीय साहित्य ७९ १४१४ गाथाएँ हैं अर्थात् १६२ गाथाएँ अधिक हैं, यह सब इस बात का प्रमाण है कि दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने श्वेताम्बरों और यापनोयों की अपेक्षा बहत अधिक प्रक्षेप एवं परिवर्तन किया है। इन उल्लेखों के अतिरिक्त वर्तमान में भी इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रयास हए हैं। जैसे 'धवला' के सम्पादन के समय मूल ग्रन्थ षट्खण्डागम से 'संजद' पद को हटा देना, ताकि उस ग्रन्थ के यापनीय स्वरूप या स्त्री मक्ति के समर्थक होने का प्रमाण नष्ट किया जा सके। इस संदर्भ में दिगम्बर समाज में कितनी ऊहापोह मची थी और पक्ष-विपक्ष में कितने लेख लिखे गये थे, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है । यह भी सत्य है कि अन्त में मलप्रति में 'संजद' पद पाया गया । तथापि ताम्रपत्र वाली प्रति में वह पद नहीं लिखा गया, संभवतः भविष्य में वह एक नई समस्या उत्पन्न करेगा। इस सन्दर्भ में भी मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बर परम्परा के मान्य विद्वान् पं० कैलाशचंद्र जी के शब्दों को ही उद्धत कर रहा है। पं० बालचन्द्र शास्त्री की कृति 'षट्खण्डागम-परिशीलन के अपने प्रधान सम्पादकीय में वे लिखते हैं-"समूचा ग्रन्थ प्रकाशित होने से पूर्व ही एक और विवाद उठ खड़ा हुआ। प्रथम भाग के सूत्र ९३ में जो पाठ हमें उपलब्ध था, उसमें अर्थ-संगति की दृष्टि से 'संजदासंजद' के आगे 'संजद' पद जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई, किन्तु इससे फलित होने वाली सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं से कुछ विद्वानों के मन आलोडित हए और वे 'संजद' पद को वहां जोड़ना एक अनधिकार चेष्टा कहने लगे। इस पर बहुत बार मौखिक शास्त्रार्थ भी हुए और उत्तर-प्रत्युत्तर रूप लेखों की श्रृखलाएँ भी चल पड़ी, जिनका संग्रह कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थों में प्रकाशित भी हआ। इसके मौखिक समाधान हेतु जब सम्पादकों ने ताडपत्रीय प्रतियों के पाठ की सूक्ष्मता से जाँच करायी तब पता चला कि वहाँ की दोनों भिन्न प्रतियों में हमारा सुझाया गया संजद पद विद्यमान है। इससे दो बातें स्पष्ट हईं-एक तो यह कि सम्पादकों ने जो पाठ-संशोधन किया है, वह गम्भीर चिन्तन और समझदारी पर आधारित है। और दूसरी यह कि मूल प्रतियों से पाठ मिलान की आवश्यकता अब भी बनो हुई है, क्योंकि जो पाठान्तर मूडबिद्री से प्राप्त हुए थे और तृतीय भाग के अन्त में समाविष्ट किये गये थे उनमें यह संशोधन नहीं मिला ।' : १. (अ) षट्खण्डागम-परिशीलन-पं० बालचन्द्र शास्त्री, प्रधानसम्पादकीय (ब) पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ खण्ड ५ षट्खण्डागम में
संजद पद पर विमर्श--पृ० १८ ।
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