________________
•७८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
कितना है यह निर्णय करना कठिन है। बहुत कुछ सोच-विचार के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्ति को इस ग्रन्थ की कोई ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट-भ्रष्ट थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थीं, इसलिए उन्होंने गोपगिरि (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरी के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने के लिए इसे ठीक किया अर्थात् जहाँ-जहाँ जितना अंश पढ़ा नहीं गया था या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया और जहाँ-जहाँ जोड़ा वहाँ-वहाँ अपने परिश्रम के एवज में अपना नाम भी जोड़ दिया। इससे स्पष्ट है कि कुछ दिगम्बर आचार्यों ने दूसरों की रचनाओं को भी अपने नाम पर चढ़ा लिया। __इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में भी पर्याप्त रूप से मिलावट हुई है। जहाँ तिलोयपण्णत्ति का ग्रन्थ परिमाण ८००० श्लोक बताया गया है वहाँ वर्तमान तिलोयपण्णत्ति का श्लोक परिणाम ९३४० है, अर्थात् लगभग १३४० श्लोक अधिक हैं। पं० नाथूराम जी प्रेमी के शब्दों में येइस बात के संकेत देते हैं कि पीछे से इसमें मिलावट की गयी है। इस संदर्भ में पं० फलचन्द्र शास्त्री के जैनसाहित्य भास्कर भाग-११, अंक प्रथम में प्रकाशित 'वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकार का विचार' नामक लेख के आधार पर वे लिखते हैं कि-"उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ अपने असल रूप में नहीं रहा है। उसमें न केवल बहत सा-लगभग एक अष्टमांश प्रक्षिप्त है, बल्कि बहुत-सा परिवर्तन और परिशोध भी किया गया है, जो मूल ग्रन्थ कर्ता के अनुकूल नहीं है।"२ इसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त की मूल गाथाएँ १८० थीं, किन्तु आज उसमें २३३ गाथाएँ मिलती हैं--अर्थात् उसमें ५३ गाथाएं परवर्ती आचार्यों द्वारा प्रक्षिप्त हैं। यही स्थिति कुन्दकुन्द के समयसार, बट्टकेरी के मूलाचार आदि की भी है । प्रकाशित संस्करणों में भी गाथाओं की संख्याओं में बहुत अधिक अन्तर है समयसार के ज्ञानपीठ के संस्करण में ४१५ गाथायें हैं तो अजिताश्रम संस्करण में ४३७ गाथायें। मूलाचार के दिगम्बर जैनग्रन्थमाला के संस्करण में १२५२ गाथाएं हैं तो फलटण के संस्करण में
१. जैनसाहित्य और इतिहास (द्वितीय संस्करण) पृ० २०२। २. जैनसाहित्य और इतिहास (द्वि० सं० ) पृ० ११-१२ और [ सूचना
प्रेमीजी के अनुसार तिलोयपण्णत्ति में कुछ बातें धवलादि से अन्यथा देखकर उसका संशोधन और परिवर्धन करके उसे वर्तमान रूप दे दिया हो पृ० १६]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org