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यापनीय साहित्य : ७७ साहित्य को शौरसेनी में अपने ढंग से रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न में उन्होंने अपने मत की पुष्टि का भी प्रयास किया।
अत; इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यापनीय आचार्यों ने भो मल आगमों के साथ छेडछाड की और अपने मत की पुष्टि हेतु उन्होंने उनमें परिवर्धन और प्रक्षेप भी किये । ___मात्र श्वेताम्बर और यापनीय ही आगमों के साथ छेड़छाड़ करने के दोषी नहीं हैं, बल्कि दिगम्बर आचार्य और पण्डित भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहे हैं। यापनीय ग्रन्थों में दिगम्बर परम्परा के द्वारा जो प्रक्षेपण और परिवर्तन किये गये हैं वे तो और भी अधिक विचारणीय हैं; क्योंकि इनके कारण अनेक यापनीय ग्रन्थों का यापनीय स्वरूप ही विकृत हो गया है। हमारे दिगम्बर विद्वान् श्वेताम्बर ग्रन्थों में प्रक्षेपण की बात तो कहते हैं किन्तु वे इस बात को विस्मृत कर जाते हैं कि स्वयं उन्होंने यापनीय और अपने ग्रन्थों में भी किस प्रकार हेर-फेर किये हैं। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बर विद्वानों का मत प्रस्तुत करना चाहँगा।
पं. कैलाशचन्द्र जी अपने द्वारा सम्पादित 'भगवती आराधना' की प्रस्तावना में लिखते हैं कि-"विजयोदया के अध्ययन से प्रकट होता है कि उनके सामने टीका लिखते समय जो मूलग्रन्थ उपस्थित था, उसमें
और वर्तमान मूल (ग्रन्थ) में अन्तर है । अनेक गाथाओं में वे शब्द नहीं मिलते जो टीकाओं में हैं।"
इससे स्पष्ट होता है कि जब दिगम्बर आचार्यों ने इस यापनीय ग्रन्थ को अपने में समाहित किया होगा तो इसकी मूल गाथाओं के शब्दों में भी हेर-फेर कर दिया होगा। यदि पं० कैलाशचन्द्र जी ने उन सभी स्थलों का जहाँ उन्हें पाठभेद प्रतीत हुआ, निर्देश किया होता तो सम्भवतः हम अधिक प्रामाणिकता से कुछ बात कह सकते थे । टीका और मूल के सारे अन्तरों को हम भी अभी तक खोज नहीं पाये हैं । अतः अभी तो उनके मत को ही विश्वसनीय मानकर संतोष करेंगे। स्वयंभू के रिट्टनेमिचरिउ (हरिवंसपुराणु) में भी इसी प्रकार की छेड़-छाड़ हुई थी। इस सन्दर्भ में पं० नाथूराम जी प्रेमी लिखते हैं-"इसमें तो संदेह नहीं है कि इस अन्तिम अंश में मुनि जसकित्ति (यशकीति) का भी हाथ है परन्तु यह
१. भगवती आराधना, प्रस्तावना पृ० ९ ।
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