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७६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
गणों में वाचना-भेद या पाठभेद होता था। विभिन्न गणों के निर्माण का एक कारण वाचना भेद भी माना गया है। यह कहा जाता है कि महावोर के ग्यारह गणधरों को नौ वाचनाएं थीं अर्थात् महावीर के काल में भी वाचना-भेद था । क्योंकि प्रत्येक वाचनाचार्य को अध्यापन शैली भिन्न होती थी। ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में शब्द के स्थान पर अर्थ पर बल दिया जाता था, तीर्थङ्कर को अर्थ का प्रवर्तक माना गया था जबकि वैदिक परम्परा शब्द प्रधान थी। यही कारण है कि जैनों ने यह माना कि चाहे शब्द भेद हो, अर्थ भेद नहीं होना चाहिए । यही कारण है कि वाचना भेद बढ़ते गये। हमें यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक उद्धरणों का वर्तमान आगमों से जो पाठभेद मिलता है उनका कारण वाचना-भेद है, अर्थ भेद नहीं, क्योंकि ऐसे अनुपलब्ध अंशों या पाठभेदों में विषय प्रतिपादन को दष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है। किन्तु इस सम्भावना से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता कि स्वयं यापनीयों ने भी अपनी मान्यता की पुष्टि के लिए कुछ अंश जोड़े हों अथवा परिवर्तित किये हों। श्वेताम्बर परम्परा में भी वलभो वाचना में या उसके पश्चात् भी आगमों में कुछ अंश जुड़ते रहे हैं इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता । हम पण्डित कैलाशचन्द्र जी के इस कथन से सहमत हैं कि वलभी वाचना के समय और उसके बाद भी आगमों के स्वरूप में कुछ परिवर्तन हुए हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रयुक्त 'बहुत' शब्द आपत्ति जनक है फिर भी ध्यान रखना होगा कि इनमें प्रक्षेप ही अधिक हुआ है, निकाला कुछ नहीं गया है। किन्तु ऐसा प्रक्षेप मात्र श्वेताम्बरों ने किया है और दिगम्बरों तथा यापनीयों ने नहीं किया है-यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि यापनीय परम्परा ने भी आगमों में अपने अनुकूल कुछ अंश प्रक्षिप्त किये हों । मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्यों को देखने से ऐसा स्पष्ट लगता है कि उन्होंने अर्धमागधी आगम साहित्य को ही सैकड़ों गाथायें शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करके अपने इन ग्रन्थों को रचना की है, मूलाचार का लगभग आधा भाग प्रकीर्णकों, नियुक्तियों एवं आगमों की गाथाओं से निर्मित है यह तो निश्चित है कि प्राचीन आगम-साहित्य अर्धमागधी में था। यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक सन्दर्भो के सदैव शौरसेनी रूप ही मिलते हैं, जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं कि उन्होंने अर्धमागधी आगम
१. जैन साहित्य का इसिहास पूर्वपीठिका पृ० ५२७ ।
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