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________________ ६६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय रूप में यापनीयों से सम्बन्धित हैं और उनपर यापनीय मान्यताओं का कम या अधिक प्रभाव भी पड़ा है। उदाहरण के रूप में काष्ठासंघ और उसके पून्नाट तथा लाड़वागड़ गच्छों पर यापनीयों का स्पष्ट प्रभाव है । काष्ठासंघ में स्त्रियों की पुनर्दीक्षा, क्षुल्लकों की वीरचर्या आदि ऐसी अवधारणाएँ हैं, जो निश्चित ही काष्ठासंघ में अन्तर्भुक्त यापनीय परम्परा के अवशेष हैं । द्राविड़ संघ में भी जब यापनीयों के नन्दीसंघ का प्रवेश नन्दीगण के रूप में हुआ तो वे भी किसी सीमा तक यापनीयों से प्रभावित हए होंगे । यद्यपि द्राविड़ संघ के साहित्य के सम्यक अध्ययन के बिना यह कहना कठिन है कि उनपर कितना और किस सीमा तक यापनीयों का प्रभाव है। द्राविड़ संघ की बीज में जीव नहीं है, शीतल जल से स्नान करने, खेती करवाने आदि में दोष नहीं है-आदि मान्यताएँ मात्र उसमें प्रविष्ट शिथिलाचार की ही सूचक हैं । काष्ठासंघ में अन्तभक्त माथुरसंघ यद्यपि मुख्यतः मूलसंघीय मान्यताओं से प्रभावित है। किन्तु उस पर काष्ठासंघ के माध्यम से आये यापनीय प्रभाव को भी पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता। यह सत्य है कि यापनीय संघ और मलसंघ परस्पर एक दूसरे के विरोधी रहे हैं, और इसलिए मूलसंघ पर यापनीयों का प्रभाव नहीं देखा जाता। यद्यपि यापनीयों के कुछ गण कालान्तर में मूलसंघ में अन्तर्भूत होते हुए देखे जाते हैं, किन्तु उन्होंने मूलसंघ की मान्यताओं को प्रभावित किया हो-यह कह पाना कठिन है। इसके विपरीत उनपर मूलसंघ की मान्यताओं का अधिक प्रभाव हुआ है। यहाँ हमें मूलाचार, मूलराधना आदि ग्रन्थों को उनके साथ जडे हए 'मूल' शब्द के आधार पर मूलसंघ से सम्बन्धित मानने की भ्रान्ति से बचना चाहिए। वस्तुतः ये ग्रन्थ मूलसंघ के न होकर यापनीयों के मूलगण से सम्बन्धित रहे हैं। जैसा कि हम पूर्व में स्पष्ट कर चके हैं, अपने दक्षिण प्रवेश के समय यापनीय अपने को मलगण, आर्यकुल और भद्रान्वय के नाम से ही सूचित करते थे। इस ग्रन्थ में यापनीय मान्यताओं की स्पष्ट उपस्थिति यह सूचित करती है कि ये ग्रन्थ यापनीय ही हैं और इनके साथ जुड़ा 'मूल' विशेषण यापनीयों के मूलगण का सूचक है यापनीयों के इन ग्रन्थों को अपना कर मूलसंघ ने इनमें अपनी मान्यताओं के अनुरूप यथाशक्य परिवर्तन भी किये, फिर भी इनमें कुछ ऐसे तत्त्व बने रहे जिसके कारण उनका यापनीय होना स्पष्ट हो जाता है। अतः चाहे मूलसंघ ने यापनीयों का विरोध ही किया हो और उनके साहित्यिक ऋण को स्वीकार भी नहीं किया हो, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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