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________________ यापनीय सघ के गण और अन्वय : ६५ यह संघ भी काष्ठा संघ के अनुरूप ही स्त्रियों की पुनः दीक्षा, क्षुल्लकों की वीरचर्या, कर्कश केश की पिच्छि और रात्री भोजन निषेध को षष्ठ व्रत के रूप में स्वीकृत करता रहा है । इससे भी इस संघ की यापनीय से कुछ निकटता तो सिद्ध होती है। लाड़वागड़गच्छ पुन्नाटसंघ से निकला है और पून्नाटसंघ यापनीयों से निकला है अतः यह भी यापनीय मान्यताओं से प्रभावित रहा है और इसने काष्ठा संघ में अन्तर्भूत होकर उसकी मान्यताओं को भी प्रभावित किया है।' यापनीय और श्वेताम्बर प्रथम अध्याय में हम स्पष्ट कर चुके हैं कि यापनीय और श्वेताम्बर, उत्तर भारत के जैन श्रमण संघ की ही दो शाखाएँ हैं। यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि यापनीय और श्वेताम्बर दोनों ही इस अविभक्त संघ में (ईसा की दूसरी शती तक) निर्मित आगमिक साहित्य के समान रूप से उत्तराधिकारी बने । साथ ही यह भी सत्य है कि प्राचीन काल में यापनीय और श्वेताम्बर दोनों एक ही साथ नग्न मूर्तियों की उपासना करते थे। दोनों के आगम और मन्दिर भी एक ही थे। इतना ही नहीं वे परस्पर एक दूसरे को ग्रन्थों का अध्ययन भी करवाते थे। मथुरा, सौराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक में उनकी साथ-साथ उपस्थिति भी इसी तथ्य को प्रमाणित करती है। प्रारम्भ में दोनों में मात्र वस्त्र मनि के लिए अपवाद लिंग है या उत्सर्ग लिंग है, इस प्रश्न को छोड़कर अन्य बातों में समानताएँ थीं। आगम ग्रन्थों के मान्य करने के कारण स्त्री मुक्ति, सवस्त्र मुक्ति, अन्यलिंग मुक्ति महावीर का गर्भापहरण, महावीर का विवाह आदि अनेक प्रश्नों पर यापनीय और श्वेताम्बरों की दृष्टि समान ही थी। मुनि की अचेलता और पाणि-पात्र में भोजन इन दो बातों को छोड़कर मुनि आचार सम्बन्धी शेष नियमों में उन दोनों में लगभग समानता ही देखी जाती है। मूलस्रोत की एकता के कारण दोनों में समानताएँ तो हैं-किन्तु उन्होंने एक दूसरे को किसी रूप में प्रभावित किया है-ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। अचेल परम्परा के इन विभिन्न संघो, गणों और गच्छों के यापनीयों के सम्बन्ध के तुलनात्मक विवेचन में हमने यह स्पष्ट रूप से देखा है कि मूलसंघ को छोड़कर जैनाभास के रूप में उल्लेखित जितने संघ हैं, वे किसी न किसी १. वही पृ० २५९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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