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________________ ६४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय नाम प्राप्त हुआ। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि उत्तरी कर्नाटक में यापनीयों का प्राबल्य था । पुनः उत्तर भारत के अन्य प्रदेशों से यापनीयों का ही निकट सम्बन्ध था क्योंकि वे उत्तर भारत से ही दक्षिण में आये थे और उनका विहार उत्तर-पश्चिम तथा मध्यभारत में होता रहता था। हरिवंशपुराण और बहत्कथा-कोष दोनों की हो रचना वर्द्धमानपूर में हई और यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्र का बड़वाण ही मालूम होता है । यह सत्य है कि सौराष्ट्र श्वेताम्बरों का केन्द्र था । वहाँ यापनीयों का ही प्रवेश अधिक सम्भव था, क्योंकि मुनि के उत्सर्गलिङ्ग और अपवादलिङ्ग के प्रश्न को छोड़ कर दोनों में सैद्धान्तिक विवाद अल्पतम थे और निकटता अधिक थी। इस बात के भी अनेक प्रमाण हैं कि यापनीय परम्परा के मनियों का आवागमन कर्नाटक से सौराष्ट्र तक प्राचीन काल में भी होता था। यापनीय संघ के षट्खण्डागम के रचयिता और स्त्रीमुक्ति के समर्थक पुष्पदंत एवं भूतबली का आचार्य धरसेन के पास सौराष्ट्र में कर्मशास्त्र के अध्ययन हेतु जाना इसका प्रबलतम प्रमाण है। यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बरों और यापनीयों में इतनी दूरी नहीं थी, जितनी कि स्त्रीमुक्ति निषेधक मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा में थी। आगमों और स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करने के कारण यापनीयों और श्वेताम्बरों में अधिक विरोध नहीं था । मुझे तो ऐसा लगता है कि वे एक दूसरे को आगम, कर्मसाहित्य आदि का अध्ययन भी करवाते थे। धरसेन या तो सचेल परम्परा के थे या फिर यापनीय थे। उन्होंने हो कर्नाटक से पुष्पदन्त और भूतबली को सौराष्ट्र बुलाया था। अपने पुराने सम्बन्धों के कारण पुन्नाटसंघ गुजरात में अधिक विकसित एवं पल्लवित हुआ। लाड़बागड़ गच्छ और यापनीय पुन्नाटगच्छ के समान लाड़बागड़गच्छ को काष्ठासंघ का उपभेद बताया जाता है, किन्तु काष्ठा संघ में अन्तर्भाव के पूर्व यह गच्छ पुन्नाट संघ से सम्बन्धित रहा है। इस गच्छ का मुख्य प्रभाव क्षेत्र गुजरात, राजस्थान और मालवा रहा है। लाड़बागड़ गच्छ के उल्लेख वि० सं० १०५५ से वि० सं० १४९३ तक मिलते हैं अतः यह एक दीर्घजीवी गच्छ है।' शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि लाड़बागड़ गच्छ मूलसंघ का विरोधी था। इस गच्छ के भट्टारक चामर की पिच्छि रखते थे। आगे चलकर यह गच्छ भी पुन्नाट संघ के साथ काष्ठा संघ में अन्तर्भूत हो गया । १. देखें-भट्टारक सम्प्रदाय पु० २५७-२६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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