SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यापनीय संघ के गण और अन्वय : ६३ गृहस्थमक्ति तथा भगवती आराधना के आधार पर अपने कथा-कोष का निर्माण आदि ।' हरिषेण को यापनीय मानने में मात्र एक ही बाधा आती है, वह यह कि उन्होंने अपनी भद्रबाह कथा में अर्धस्फालक काम्बल तीर्थ और यापनीय संघ की उत्पत्ति का असम्मानजनक रूप से उल्लेख किया है । श्रीमती कुसुम पटोरिया ने इस अंश को भी प्रक्षिप्त होने की संभावना प्रकट की है। इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि दिगम्बर आचार्यों ने यापनीय सम्प्रदाय के साहित्य को अपने में समाहित करते समय उसमें अनेक प्रक्षेपण किये हैं । इस सबकी चर्चा हमने अलग से की है। बृहत्कथा-कोष में स्त्रीमुक्ति और गृहस्थ मुक्ति के उल्लेख इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि पुन्नाटसंघीय हरिषेण यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे । पुन्नाटसंघ के यापनीय परम्परा से सम्बद्ध मानने का एक आधार तो यह है कि यापनीयों का एक प्राचीन गण का नाम पुन्नागवृक्षमूलगण था। सम्भव है कि यही पुन्नाग गण आगे चलकर पुन्नाटसंघ बन गया हो । इस संदर्भ में प्रो० जोहरापुरकर का कथन विशेषरूप से द्रष्टव्य हैलिखते हैं- "शक संवत् ७३५ में कुविलाचार्य के प्रशिष्य तथा विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीति को चाकीराज की प्रार्थना से बल्लभेन्द्र ने जाल नामक ग्राम दान में दिया था । अर्ककीति ने अपने को यापनीय नन्दीसंघ तथा पुन्नागवृक्षमूल का कहा है। सम्भवतः पुन्नागवृक्षमूलगण पून्नाटसंघ का ही रूपान्तरण है। मेरी उनसे इस संदर्भ में यह भिन्नता है कि जहाँ वे पुन्नाटसंघ से पुन्नागवृक्षमूलगण का आविर्भाव मानते हैं, वहाँ मैं पुन्नाग वृक्षमूलगण से पुन्नाट संघ का आविर्भाव हआ है-ऐसा मानता है। यद्यपि पुन्नागवृक्षमूलगण के कुछ परवर्ती अभिलेख भी उपलब्ध हैं। सम्भावना यह है कि कर्नाटक से सौराष्ट्र जाने पर इस पुन्नागवृक्षमूलगण ने स्वतंत्ररूप से अपने को पुन्नाट संघ घोषित किया है। ये दोनों रचनाएँ सौराष्ट्र में ही निर्मित हैं। गणों के संघों में और संघों के गणों में परिवर्तित होने के अनेक उल्लेख हमें दक्षिण भारत की अचेलक परम्परा में मिलते हैं। पं० नाथूराम जी प्रेमी के अनुसार पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है और कर्नाटक के मुनि संघ को कर्नाटक के बाहर जाने पर यह १. यापनीय और उनका साहित्य पृ० १५१-१५३ । २. वही पृ० १५३ । ३. वही पृ० १५३। ४. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० २५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy