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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ६७
यापनीयों के साहित्य को अपनाकर मूलसंघ उनमें उपकृत तो अवश्य ही हुआ है । आज भी यदि यापनीय और कष्ठासंघीय साहित्य मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा से अलग कर दिया जाय तो मात्र कुन्दकुन्द के ग्रन्थों, तत्त्वार्थ की कुछ टीकाओं और कुछ संस्कृत पुराण-ग्रन्थों के अतिरिक्त उनका अपना कुछ नहीं बचता। अन्य कुछ जो भी है वह यापनीयों के ग्रन्थों पर उनको मूलात्मा से पृथक होकर की गई टीकाएँ हैं। अगले अध्याय में हम यापनीय साहित्य पर विचार करेंगे।
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